जब भी रामायण की बात होती है, तो श्रीराम, उनके माता- पिता और भाइयों के साथ एक और नाम आता है, जो उनके परिवार का हिस्सा तो नहीं है, लेकिन श्रीराम के सम्पूर्ण जीवन में उसका बहुत महत्व है, यहाँ तक कि, उनके बिना मानवरूप में, रामजी की लीला भी संपन्न नहीं हो पाती| यहाँ हम मंथरा की बात कर रहे हैं, जो थी तो एक दासी, लेकिन इस सम्पूर्ण लीला में ऐसी मुख्य धारा थी, जिसकी वजह से ‘रामायण’ की शुरुआत हुई|
मंथरा राजा दशरथ की सबसे प्रिय और और सुंदर रानी कैकेयी की दासी थी, जो मायके से ही कैकई के साथ अयोध्या आई थी, कहते हैं, मंथरा ने बचपन से ही कैकई को बेटी की तरह पाला था, इसीलिए वो, कैकेयी से बहुत स्नेह करती थी, और दासी होने के बाद भी, कैकई को सबसे ज्यादा प्रिय मंथरा ही थी, और वो हर छोटी बड़ी बात में मंथरा की राय अवश्य लेती थी, वाल्मीकि रामायण के अनुसार मंथरा एक गंधर्व कन्या थी, और इन्द्रदेव ने पहले से ही उसे, कैकई के पास भेज दिया था, ताकि श्रीराम, को मानव रूप में वनवास दिए जाने की लीला हो सके, लेकिन वो कहाँ से आई थी, ये किसी को नहीं पता था, कहा तो ये भी जाता है कि, मंथरा के चलते ही, कैकई की माँ ने भी अपने पति से विद्रोह कर दिया था, और इसीलिए कैकई के पिता ने, उन्हें मायके भेज दिया था|
मंथरा की रामायण में क्या भूमिका थी?
श्रीराम और उनके भाइयों के विवाह के पश्चात राजा दशरथ राम को राजा बनाने के लिए उनके राज्यभिषेक की घोषणा करते है, तो मंथरा इस बात से बहुत विचलित हो जाती है, और महारानी कैकई को रामजी के विरुद्ध भड़का देती है, क्योंकि श्रीराम के राजा बनने की बात सोचकर, उसके मन में आया कि, यदि राम राजा बने तो कौशल्या राजमाता कहलाएंगी, और उसके बाद महारानी कौशल्या रानियों में श्रेष्ठ हो जाएगी, और उनकी दासियां मुझसे श्रेष्ठ हो जायेगी, फिर कोई भी मेरा सम्मान नहीं करेगा, यही सोचकर मंथरा ने कैकेयी को भड़काना शुरू किया और कहा, ‘रानी आप यह मत भूलिए राम अगर अयोध्या के राजसिंहासन के अधिकारी बने तो भरत का भविष्य अंधकारमय हो जायेगा, ये सुनकर रानी कैकेयी को भी यही लगने लगा, फिर उन्होंने, मंथरा से सलाह ली कि, उन्हें क्या करना चाहिए? तब मंथरा ने उन्हें, महाराज दशरथ से अपने दो वचनों की बात याद दिलाते हुए, उन वचनों में श्रीराम के लिए 14 वर्ष का वनवास और भरत के लिए राजसिंहासन मांगने की सलाह दी। उसके बाद कैकेयी ने बिलकुल वैसा ही किया, और रघुकुल की परम्परा के हिसाब से महाराज दशरथ को अपने वचनों का पालन कर राम को वनवास और भरत को राजसिंहासन देना पड़ा।
इसके बाद श्रीराम ने अपने वनवास के दौरान सभी राक्षस-असुरों का विनाश कर लंका पर विजय प्राप्त करके पूरी लीला को संपन्न किया।
कहा तो ये भी जाता है कि, जब महाराज दशरथ ने श्रीराम को अयोध्या का राजा बनाने का निश्चय किया, और अवध में तैयारियां शुरू हुई तो देवता घबरा गए थे, क्योंकि देवों की इच्छा थी कि, श्रीराम वन में जाए, ताकि रावण सहित अन्य राक्षसों का वध हो सके, और श्रीराम का अवतार होने का कारण भी यही था, लेकिन जब राज्यभिषेक की तैयारी शुरू हुई, तब राम को वन भेजने के उद्देश्य से देवताओं ने ज्ञान की देवी सरस्वती के माध्यम से कैकयी की दासी मंथरा की मति फेर दी और उसने कैकयी को भड़का दिया। गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपनी रामचरितमानस के अयोध्याकांड में इसके पीछे देवताओं की भूमिका का भी उल्लेख किया है।
Jai shree Ram