वेदांग – कल्प निरुक्त व्याकरण छन्द ज्योतिष

पिछले लेख में वेदांग के छह शास्त्रों में से एक ‘शिक्षा’ का विस्तृत वर्णन था आगे के अङ्गों का वर्णन इस लेख में प्रस्तुत है- कल्प सूत्र
वैदिक कर्मों के विस्तार से समझाने और संपन्न कराने के विधि विधान का वर्णन कल्पसूत्र में होता है। विद्वानों ने कल्पसूत्र के दो विभाग बताएं हैं-
श्रोतसूत्र और स्मार्त सूत्र।
वेदों में वर्णित यज्ञ विधान में किस यज्ञ में किन मंत्रों का प्रयोग करना चाहिए?
कौन सा यज्ञ अनुष्ठान किस तरीके से करना चाहिए?
यज्ञ की वेदी और उसका आकार प्रकार आदि कैसा होने चाहिए ?
इन सभी कर्मकाण्डों का संपूर्ण विधि विधान, कल्पसूत्र में वर्णित होता है। श्रोतसूत्र में यज्ञ आदि कर्मों का विधान वर्णित है और स्मार्तसूत्र में मानव जीवन के सोलह संस्कारों का ज्ञान और विधान वर्णित है।

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व्याकरण शास्त्र
‘मुखं व्याकरण समृतम्’
पाणिनीय शिक्षा शास्त्र में व्याकरण को वेद पुरुष का मुख कहा गया है। व्याकरण वेदांग का एक प्रमुख भाग है। शब्दों, धातुओं आदि के ज्ञान तथा शुद्धता का वर्णन व्याकरण में होता है। विद्वानों ने व्याकरण के कई कई अर्थ बताए हैं।
वेदों के पठन-पाठन में व्याकरण का महत्व बताते हुए विद्वानों ने पांच कारण बताए हैं–

01- रक्षा – व्याकरण के अध्ययन द्वारा वेदों के वास्तविक स्वरूप की रक्षा होती है।

02 ऊह – ऊह का अर्थ है कल्पना। वैदिक मंत्रों में स्त्रीलिंग पुल्लिंग आदि लिंगो का संकेत नहीं है और ना ही विभक्तियों का संकेत है इसलिए सही अर्थ जानने समझने के लिए व्याकरण आवश्यक है।

03 आगम- आगम का अर्थ है श्रुति। श्रुति कहती है कि वेद अध्ययन ब्राह्मणों का परम कर्तव्य है, ब्राह्मणों को वेद का पठन पाठन करना ही चाहिए।

04 लघु – लघु का अर्थ शीघ्र प्रयास। वेदों में ऐसे बहुत से शब्द हैं जिनका अर्थ या उनकी उत्पत्ति जानना संभव नहीं है, इन्हें व्याकरण द्वारा ही आंशिक रूप से जाना समझा जा सकता है।

05 असन्देह – इसका तात्पर्य है संदेह का ना होना। शब्दों का आवश्यक ज्ञान कराकर व्याकरण ही संदेह दूर करता है।
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निरुक्त शास्त्र
वेदों में प्रयोग होने वाले वर्णो (अक्षरों) अथवा शब्दों की उत्पत्ति मूल रूप से कैसे हुई है इसका ज्ञान निरुक्त द्वारा स्थापित किया जाता है। यास्काचार्य जी का ‘शब्द व्युत्पत्ति शास्त्र’ नामक ग्रंथ इस विधा का प्रसिद्ध और मान्य ग्रंथ है। निरुक्त के बिना वेद मंत्रों का वास्तविक अर्थ समझना संभव नहीं है।

छन्द शास्त्र
निश्चित वर्णों (अक्षरों) अथवा मात्राओं में रचित मंत्रों को छंद की संज्ञा दी गई है। वेदों में प्रयुक्त कुछ प्रमुख छंद हैं- गायत्री, अनुष्टुप, त्रिष्टुप, बृहती आदि। सुविधाजनक और सफल पठन-पाठन के लिए ‘छन्द शास्त्र’ का ज्ञान बहुत आवश्यक है। पिंगल मुनि द्वारा रचित ‘छन्द सूत्र’ इस विधा का प्राचीनतम ग्रंथ है।

ज्योतिष शास्त्र
नभमंडल में सूर्य चन्द्र आदि नवग्रह तथा 27 नक्षत्रों की स्थिति, गति तथा प्रभावों का ज्ञान ज्योतिष प्रदान करता है। ग्रह नक्षत्रों की गति के आधार पर कब कौन सी खगोलीय घटना हो सकती है ? सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण आदि कब कब पड़ सकते हैं तथा इनके प्रभाव आदि का वर्णन ज्योतिष में मिलता है। वेद मंत्रों में जिन ग्रह नक्षत्रों की जो स्थिति या प्रकृति बताई गई है उनको जानने समझने के लिए ज्योतिष का का ज्ञान आवश्यक है।

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इस प्रकार शिक्षा शास्त्र सहित ये सभी वेदांग, वेदों को पढ़ने और समझने के लिए नितांत आवश्यक हैं।
चार वेद, चार उपवेद, छह वेदांग ये 14 विधाएं ‘अपरा विद्या’ कहलाती हैं।