पूरे देश में जिस तरह से कई स्थानों पर राजा-महाराजाओं के बनाए हुए किले मिलते हैं, उसी तरह मध्यप्रदेश में भी कई किले हैं। इनमें से एक किला ऐसा भी है जो इतिहास के साथ ही धार्मिक महत्व भी रखता है। इसका संबंध जहां पुराने शासकों से है, वहीं यह महाभारत काल से भी जुड़ा हुआ है। यह भी माना जाता है कि इसका निर्माण रामायण काल में हुआ है। जी, हां यहां बात की जा रही है मध्य प्रदेश के बुरहानपुर जिले में स्थित असीरगढ़ के किले की। इस किले के निर्माण को लेकर कई तथ्य और बातें प्रचलित हैं। कुछ लोग मानते हैं कि इस किले का निर्माण आशा अहीर नाम के एक व्यक्ति ने कराया था, वहीं इस किले को महाभारत काल के गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा से भी जोड़ा जाता है। भगवान श्रीकृष्ण के शाप के चलते अश्वत्थामा यहां पांच हजार से ज्यादा सालों से भटक रहे हैं। किले में वह शिव मंदिर आज भी मौजूद है, यहां माना जाता है कि अजर-अमर अत्वत्थामा रोज ब्रह्ममुहूर्त में पूजा करने आते हैं।
असीरगढ़ का किला बुरहानपुर जिला मुख्यालय से इंदौर मार्ग पर लगभग 20 किमी की दूरी पर मौजूद है। सतपुड़ा की पहाड़ियों पर स्थित यह किला समुद्र तल से लगभग 250 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। इस किले में कई रहस्य हैं। यहां आए दिन लोगों को नई-नई बातों के बारे में पता चलता है। पुरातत्व विभाग की टीम इस किले का समय-समय पर निरीक्षण करती है। पिछली बार किले की पश्चिमी दिशा में खुदाई की गई थी, तो उस दौरान पुरातत्व विभाग की टीम को कई खास चीजें मिलीं। जमीन के अंदर एक खूबसूरत महल मिला। अनुमान है कि ये महल रानी के लिए बनवाया गया होगा। रानी महल में 20 गुप्त कमरों का भी पता चला है। यह महल 100 बाय 100 की जगह में बना है। इस महल में एक स्नान कुंड भी है। खुदाई में एक जेल का भी पता चला है। जेल में लोहे की खिड़कियां लगी हुई हैं। साथ ही, दरवाजे भी मिले हैं। जेल में लगभग चार बैरकें हैं। इतना ही नहीं यहां एक फांसीघर भी मिला है।
असीरगढ़ के नामकरण के पीछे एक कथा जुड़ी हुई है। इसके अनुसार यहां कभी कोई आशा अहीर नाम का व्यक्ति रहने आया था। उसके पास हजारों पशु थे। कहा जाता है कि उन पशुओं की सुरक्षा के लिए आशा अहीर ने ईंट, गारा – मिट्टी और चूना-पत्थरों का इस्तेमाल कर दीवारें बनाई थी। इसी वजह से अहीर के नाम पर इस किले को असीरगढ़ नाम दिया गया। इस किले पर कई सम्राटों का शासन रहा है। यहां लंबे समय तक चौहान वंश के राजाओं ने भी राज किया है।
इस किले में एक तालाब है, जो भीषण गर्मी में भी कभी सूखा नहीं है। चिरंजीवी माने जाने वाले अश्वत्थामा रोज यहां स्नान करने के बाद पास के अतिप्राचीन शिव मंदिर में पूजा करने जाते हैं। भगवान शिव का मंदिर तालाब से थोड़ी दूर गुप्तेश्वर महादेव के नाम से पहचाना जाता है। मंदिर के चारों ओर गहरी खाइयां हैं। इन खाइयों में से कोई गुप्त रास्ता होने का भी अनुमान है, जो मंदिर से जुड़ा है। अश्वत्थामा महाभारतकाल यानी द्वापर युग में जन्मे थे। उन्हें उस युग का श्रेष्ठ योद्धा माना जाता था। वे गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र और कुरु वंश के राजगुरु कृपाचार्य के भानजे थे। द्रोणाचार्य ने ही कौरवों और पांडवों को शस्त्र विद्या सिखाई थी। महाभारत के युद्ध के समय गुरु द्रोण ने हस्तिनापुर राज्य के प्रति निष्ठा होने के कारण कौरवों का साथ देना उचित समझा। पांडवों द्वारा द्रोणाचार्य का अंत कर देने पर उनके पुत्र अश्वत्थामा ने क्रोध में आकर ब्रह्मास्त्र चला दिया था। भगवान श्रीकृष्ण ने जब उससे होने वाले विनाश की जानकारी देते हुए ब्रह्मास्त्र वापस लेने को कहा तो अश्वत्थामा ने बताया उसे वापस लेने की विद्या नहीं आती है। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी शक्ति से ब्रह्मास्त्र को रोक दिया था, लेकिन अश्वत्थामा के माथे पर लगी मणि निकाल ली और शाप दिया कि वह अनंतकाल तक भटकता रहेगा। तब से अश्वत्थामा श्रीकृष्ण के शाप से अमर लोगों की श्रेणी में आ गए, लेकिन तब से भटक रहे हैं।
स्थानीय लोगों का तो यहां तक कहना है कि मणि निकाल लेने के बाद अश्वत्थामा का घाव अभी तक नहीं भरा है और वे कई बार लोगों से उसमें लगाने के लिए तेल-हल्दी भी मांगते मिले हैं। किले के संदर्भ में लोगों का मानना है कि किले के गुप्तेश्वर महादेव मंदिर में अश्वत्थामा अमावस्या व पूर्णिमा तिथियों पर शिव की उपासना और पूजा अवश्य करते हैं। लोगों का तो यह भी कहना है कि उन्होंने इस मंदिर में ब्रह्ममुहूर्त में पूजा के निशान भी देखे हैं। इस प्रकार असीरगढ़ का किला अपने अंदर इतिहास और आस्था दोनों समेटे हुए है