*चातुर्मास – (पौराणिक और वैज्ञानिक) ‘इन चार महीनो में क्या खायें क्या नहीं’

हमारे सनातन वैदिक धर्म अर्थात हिंदू धर्म में सांसारिक और आध्यात्मिक विकास को ध्यान में रखते हुए अनगिनत व्यवस्थाएं की गई हैं और दिशा निर्देश भी दिए गए हैं। इन्हीं में से एक बहुत ही महत्वपूर्ण विषय है चातुर्मास। 12 महीने का वर्ष और उसमें 4 महीने का चातुर्मास, जिसमें- श्रवण, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक आते हैं।

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प्रतिवर्ष आषाढ़ महीने के शुक्ल पक्ष की देवशयनी एकादशी से प्रारंभ होकर कार्तिक शुक्ल पक्ष की देवउठनी एकादशी तक के समय को चातुर्मास कहा जाता है। इस वर्ष का चातुर्मास 01 जुलाई से प्रारंभ होकर 26 नवंबर को समाप्त हो रहा है। वर्ष के इन 4 महीनों में प्राकृतिक वातावरण बाकी महीनों से बहुत अलग होता है। इन 4 महीनों की विशेष मान्यता के कई कारण हैं- एक तो हमारी पाचन शक्ति मंद होती है, वहीं खाद्य पदार्थों और पानी में कीटाणुओं/विषाणुओं की संख्या बहुत अधिक हो जाती है।

इन 4 महीनों में पहला महीना श्रावण बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। वैसे तो पूरे चातुर्मास में भूमि पर सोना और सूर्योदय से पहले उठना बहुत शुभ माना जाता है पर इन 4 महीनों में इसका महत्व बहुत अधिक है। चातुर्मास में विवाह, नामकरण, गृह प्रवेश, उत्सव आदि न करने की मान्यता है साथ ही दूध, शक्कर, दही, तेल, बैगन, पत्तेदार सब्जियां, नमकीन, मसालेदार भोजन, मिठाई, सुपारी, मांस-मदिरा आदि का सेवन वर्जित है।
विशेष रुप से
श्रावण में पत्तेदार सब्जियां
भाद्रपद में दही
आश्विन में दूध
कार्तिक में प्याज लहसुन उड़द की दाल आदि का सेवन नहीं करना चाहिए। धर्म साधना के लिए तो ये 4 महीने विशेष महत्वपूर्ण हैं ही साथ ही शारीरिक स्वास्थ्य और दैनिक व्यवहार के लिए भी इन 4 महीनों का विशेष महत्व है।

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पौराणिक मान्यताओं के अनुसार 1000 अश्वमेध यज्ञ के बराबर पुण्य की प्राप्ति होती है चातुर्मास के विधिवत व्रत को पूरा करने पर। इन महीनों में ब्रह्मचर्य का पालन, पत्तल पर भोजन, भूमि पर शयन, उपवास, मौन व्रत, जप, ध्यान, दान आदि करने चाहिए। धर्म का सबसे उत्तम साधन,सबसे उत्तम व्रत है ब्रह्मचर्य। चातुर्मास में विशेष रूप से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन सबसे अधिक पुण्य देता है।

गुड़ का त्याग करने वाला वाणी की मधुरता प्राप्त करता है। तांबूल/पान का त्याग करने से भोग सामग्रियों की उपलब्धि होती है, कंठ सुरीला होता है। दही का त्याग करने से गोलोक की प्राप्ति होती है। नमक का त्याग करने से सभी पूर्त कर्म जैसे चंदा देना परोपकार करना आदि करने का फल मिलता है। मौन व्रत करने वाले की आज्ञा का कोई उल्लंघन नहीं करता। भूमि पर शयन करने से धन लाभ होता है।

काले नीले वस्त्रों का उपयोग बंद कर देना चाहिए क्योंकि इस रंग के कपड़ों पर संक्रमण अधिक होता है और हो सके तो लाल और केसरी रंग का भी उपयोग ना करें। पीले और सफेद वस्त्रों का उपयोग लाभदायक माना जाता है। शहद का सेवन बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए साथ ही अनार, नींबू, नारियल, मिर्च, उड़द और चने को भी त्याग देना चाहिए।

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चातुर्मास में दूसरों की निंदा भूल से भी न करनी चाहिए और ना सुननी चाहिए। वैसे तो किसी की भी निंदा कभी भी करनी या सुननी नहीं चाहिए परंतु चातुर्मास के लिए विशेष निषेध है। स्कंद पुराण में उल्लेख है–
परनिंदा महापापं, परनिंदा महा भयम्।
परनिंदा महत् दुःखं, न तस्या: पातकं परम्।।

अर्थात दूसरों की निंदा करना महापाप है, दूसरों की निंदा करना महा भय देने वाला है, दूसरों की निंदा करना महा दुख देने वाला है। इसके जैसा महान और कोई पाप नहीं है।
(स्कंद पुराण ब्रा.चा.मा.4:25)

तांबे और कांसे के बर्तनों का त्याग कर देना चाहिए और हो सके तो मिट्टी के बर्तन या पत्तल के पात्रों में भोजन करें। दिन में मात्र एक बार भोजन करने वाले मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं। पूरे चातुर्मास में मात्र एक ही अन्न का भोजन करने वाला मनुष्य पूरे वर्ष निरोगी रहता है।

15 दिन में 1 दिन पूरी तरह से उपवास करने से शरीर के दोष नष्ट हो जाते हैं और 14 दिनों के भोजन से तैयार हुआ रस ओज में परिवर्तित हो जाता है इसीलिए एकादशी के उपवास की महिमा है। इन 4 महीनों में भगवान विष्णु शयन मुद्रा में होते हैं इसलिए धार्मिक काम अधिक करें और उत्सव आदि के काम ना करें तो अच्छा है।

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वर्षा के कारण इन दिनों संक्रमण का भय सबसे अधिक होता है इसलिए पत्ते वाले साग सब्जियां ना खाना ही उचित है, दूध दही भी जानवरों के आहार से प्रभावित होते हैं इसलिए उनका सेवन भी ना करना ही हितकर है।( सावन में शिवलिंग पर दूध चढ़ाने का एक कारण यह भी है) यात्रा में परेशानियों का अनुभव व्यक्तिगत रूप से सबको होगा ही इसीलिए इन 4 महीनों में जो जहां है वहीं रहने का निर्देश है, यात्राएं करना मना है। साथ ही और भी बहुत से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कारण हैं जिनके लिए चतुर्मास के ये नियम बनाए गए हैं।

सारांश यही है कि अपने लिए उचित अनुचित या अच्छी बुरी हर बात की जानकारी रखना हमारे लिए संभव नहीं है इसलिए हमारे पूर्वजों, विद्वानों ऋषियों, मुनियों ने जो नियम निर्देश निर्धारित किए हैं उन पर पूर्ण रूप से श्रद्धा विश्वास रखते हुए हमें हमारी परंपराओं का पालन करना चाहिए। इसी में आत्म कल्याण भी है और विश्वकल्याण भी।
इति कृतम्