यह तो सभी जानते हैं कि भगवान जनकल्याण और अपने भक्तों को तारने के लिए धरती पर अवतार लेते हैं। यह अवतार चाहे श्रीराम के रूप में हो या श्रीकृष्ण के रूप में, उन्होंने दुष्टों का अंत कर संतों का कल्याण किया है और आम लोगों का मानवता का रास्ता दिखाया है। जब महाभारत युद्ध शुरू होने वाला था तो इसके ठीक पहले, भगवान श्रीकृष्ण ने असमंजस में डूबे अर्जुन को कर्म का रास्ता दिखाते हुए उपदेशों के साथ आशीर्वाद दिया, जिन्हें अब हम गीता के उपदेश के रूप में जानते हैं। जब अर्जुन ने अपने परिवार के सदस्यों और प्रियजनों के खिलाफ लड़ने से इनकार कर दिया, तो भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें अन्याय और असत्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने का महत्व बताया। इससे बहुत पहले भी भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को महत्वपूर्ण शिक्षा दी थी, लेकिन वे इसे स्वीकार नहीं कर पाए। अर्जुन की गलती से ही कौरवों को हस्तिनापुर की गद्दी पर दावा करने का अधिकार मिल गया था।
जब पांडव और द्रौपदी हस्तिनापुर पहुंचे, तो वरिष्ठों ने हस्तिनापुर को दो भागों में विभाजित करने के पक्ष में अपना मत दिया था। इसमें एक हिस्सा पांडवों को और दूसरा कौरवों को देना का तय हुआ था। तब अर्जुन भ्रमित थे और मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण का इंतजार कर रहा थे। भगवान श्रीकृष्ण ने जानबूझकर खुद को इस प्रक्रिया से दूर रखा था, क्योंकि वह चाहते थे कि अर्जुन अपना अधिकार मांगें और अपना फैसला खुद लें, लेकिन अर्जुन श्रीकृष्ण से इतना अभिभूत थे कि उन्होंने प्रभु कृष्ण पर सब कुछ छोड़ दिया। यहीं पर अर्जुन गलती कर गए और भगवान कृष्ण की सीख पर ध्यान नहीं दिया।
श्री कृष्ण ने महसूस किया था कि अर्जुन अपना अस्तित्व खो रहा था और उनके निर्णयों को नहीं मान रहा है। वह सोचता था कि उनके साथ भगवान श्रीकृष्ण की उपस्थिति कुछ भी गलत नहीं होने देगी। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा- मैं सब कुछ देखता हूं, तुम्हें सही रास्ता दिखाता हूं, लेकिन मैं तुम्हारे निर्णय नहीं लूंगा। अर्जुन, आपको अपने फैसले खुद लेने होंगे और धर्म के मार्ग पर चलना होगा। मैं आपको सही रास्ता बताऊंगा, लेकिन अगर आपने एक अलग दिशा में जाने का विकल्प चुना है, तो भी आप इसका अनुसरण करने के लिए स्वतंत्र हैं। हम सभी को अपने काम की जिम्मेदारी खुद लेनी होगी। हम अपने कर्म के लिए खुद जिम्मेदार हैं। वास्तव में अर्जुन इस शिक्षा के महत्व को समझ नहीं पाए और हस्तिनापुर को विभाजित करने के प्रस्ताव का समर्थन नहीं किया। अर्जुन के इसी अनिर्णय के बहाने से पुत्र मोह में धृतराष्ट्र ने दुर्योधन के राज्यभिषेक की घोषणा कर दी थी। भगवान श्रीकृष्ण की यही सीख थी कि मैं आपके लिए फैसले नहीं लूंगा, आपका मार्गदर्शन करूंगा। अपने कर्म की जिम्मेदारी खुद को ही लेनी होगी। वैसे गुरु का काम भी यही है कि वे सही मार्ग दिखाते हैं, उस मार्ग पर चलने का फैसला आपको ही लेना होता है।