अष्टांग योग से बदल सकती है जीवन की दिशा, बुराइयां हो जातीं हैं दूर

वर्तमान समय में मनुष्य अध्यात्म को छोड़ भौतिक सुख सुविधाओं की तरफ भाग रहा है। उसे पता ही नहीं है कि यह रास्ता उसे ईश्वर से दूर ले जा रहा है। भौतिक सुख सुविधाओं की इच्छा से मनुष्य में कई बुरी आदतों का जन्म होता है। इन बुरी आदतों के कारण ही आत्मा का ईश्वर से मिलन नहीं हो पाता है। बुरी आदतें, मनुष्य को घेरकर उसे चंचल बनाती हैं और ईश्वर से दूर ले जाती हैं। महर्षि पतंजलि ने इन बुरी आदतों को दूर करने के लिए कुछ क्रिया बताई हैं, जिन्हें आठ भागों में बांटा गया है। इसलिए इन्हें अष्टांग योग कहा जाता है। अष्टांग योग के जरिए हम हमारी बाहरी और आंतरिक बुराइयों को दूर करके खुद को ईश्वर के करीब ले जा सकते हैं।

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महर्षि पंतजलि द्वारा बताए अष्टांग योग है – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। इनकी मदद से हम अपनी बुराइयों को नष्ट कर सकते हैं। अष्टांग योग में क्रम का भी विशेष महत्व है क्योंकि किसी भी योग का तब तक लाभ नहीं होगा जब तक कि उसके पहले के योग की सभी बुराइयां दूर नहीं हो जाती।

यम :- यम को धर्म का रक्षक माना गया है। धर्म की रक्षा के लिए यम के पांच विचार बताए गए हैं – अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। इन पांच विचारों पर चलकर ही हम धर्म की रक्षा कर सकते हैं। प्राणी मात्र को किसी भी रूप में कष्ट ना पहुंचाना ही अहिंसा है। हमने जैसा देखा, सुना या समझा हो, उसे वैसे ही बताना सत्य है। किसी भी व्यक्ति के विचार, अधिकार या वस्तु की मन, वचन या कर्म से चोरी न करना ही अस्तेय है। शरीर की सभी इन्द्रियों को काबू में करके सभी प्रकार के मिथुनों का त्याग करना ही ब्रह्मचर्य है। जबकि भौतिक सुख सुविधाओं के सभी साधनों का त्याग ही अपरिग्रह है।

नियम :- अष्टांग योग इस भाग का संबंध आत्मा, मन और शरीर की पवित्रता से है। इसके पांच विचार शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान है। यहां शौच का आशय शरीर, मन, कर्म और बुद्धि की शुद्धि से है। संतोष यानी लोभ को समाप्त कर जो हमारे पास है उसी में खुश रहना। तप का आशय धर्म की राह में आने वाले शारीरिक व आंतरिक दुःखों को सहन करने से है। चाहे वह लाभ-हानि, सुख-दुःख हो या सर्दी-जुकाम व बुखार। स्वाध्याय का अर्थ है अच्छे विचारों और बातों को ग्रहण करना व उसे दूसरे लोगों तक भी पहुंचाना। ईश्वर प्रणिधान का अर्थ है मन से ईश्वर की भक्ति में लीन होना। हम जो भी कार्य करे उसे ईश्वर को समर्पित कर देना। ऐसा करने से अहंकार का जन्म नहीं होगा।

आसन :- हम कभी भी चलते-फिरते ईश्वर का ध्यान नहीं कर सकते हैं। ईश्वर का ध्यान करने के लिए हमें मन और शरीर को स्थिर करना आवश्यक है। स्थिर तथा सुखपूर्वक बैठने की क्रिया को ही आसन कहा जाता है। आसन का मुख्य उद्देश्य ही प्राणायाम, धारणा, ध्यान और समाधि हैं।

प्राणायाम :- जिस तरह शरीर की स्वच्छता के लिए स्नान आवश्यक है, उसी तरह प्राण नाड़ी और मन की शुद्धि के लिए प्राणायाम जरूरी है। प्राणायाम से हमारा मन पर स्वामित्व हो जाता है और हम सही निर्णय ले पाते हैं। यह शरीर और मन को तनाव से मुक्त करता है।

प्रत्याहार – मनुष्य की दस इंद्रियां ध्यान भटकाकर उसे दूसरी चीजों की तरफ आकर्षित करती है। इसलिए इंद्रियां को अपने वश में करके बाहरी विषयों से ध्यान हटाना ही प्रत्याहार है। जब तक मनुष्य प्रत्याहार में सिद्धि नहीं पा लेता, उसका मन ईश्वर में नहीं लगता है।

धारणा :- मन पर काबू कर उसे किसी विशेष पर केंद्रित करना ही धारणा है। हालांकि यह आसान नहीं है लेकिन जो व्यक्ति यम, नियम, आसन, प्राणायाम में सिद्धि पा लेता है। वह इसे आसानी से कर सकता है।

ध्यान :- धारणा के जरिए जब हम अपने मन को किसी विशेष पर केंद्रित कर लेते हैं, तो उसके लंबे समय तक केंद्रित रहने के प्रवाह को ध्यान कहते हैं। ध्यान से हमारा मन एकाग्र बनता है व हम परमात्मा के करीब पहुंचते हैं।

समाधि :- जब मन किसी के प्रति इतना एकाग्र हो जाए कि वह स्वयं को भूल जाए और ईश्वरीय गुण को ग्रहण कर ले, वह ही समाधि है। समाधि के जरिए ही मोक्ष पाया जा सकता है।