सनातन धर्म और सृष्टि के आधार स्तंभ ‘चतुर्वेद’ का चौथा स्तंभ है अथर्ववेद। इस वेद का एक नाम ‘ब्रह्मवेद’ भी है पौराणिक मान्यताओं के अनुसार अथर्ववेद की रचना सबसे बाद में हुई है। वास्तव में चारों वेदों की उत्पत्ति एक साथ हुई है परंतु इनका साकार होना और लिपिबद्ध होना अलग-अलग समय पर हुआ है और इसी आधार पर वेदों को क्रमिक वरीयता दी गई है। अथर्ववेद में सृष्टि के संचालन में सहायक अधिकारी देवताओं की स्तुतियों के साथ साथ मानव जीवन से जुड़े लगभग हर क्षेत्र का वर्णन मिलता है।
अथर्ववेद की मान्यता के संदर्भ में कहा जाता है कि जिस राष्ट्र में अथर्ववेद का ज्ञाता विद्वान शांति स्थापना के लिए धर्म कार्य में लगा हो वह राष्ट्र उपद्रव और हिंसा से मुक्त रहता है और निरंतर प्रगति करता है। उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर अथर्ववेद में छह हजार (6000) मंत्र (ऋचाएँ) हैं ऐसी मान्यता है और इस वेद का रचनाकाल सात सौ से पंद्रह सौ ईसा पूर्व का माना जाता है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार अथर्ववेद का ज्ञान सबसे पहले भगवान द्वारा ‘महर्षि अंगिरा’ को दिया गया उसके बाद महर्षि अंगिरा से ‘ब्रह्मा जी’ को प्राप्त हुआ।
अथर्ववेद में भूगोल, खगोल, गणित, वनस्पति विज्ञान, कृषि विज्ञान, औषधी विज्ञान, आयुर्वेद विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान, अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र, समाजशास्त्र, राष्ट्रभूमि तथा राष्ट्रभाषा की महिमा, शल्य चिकित्सा, कृमि रोगों का निदान, मृत्यु तथा बुढ़ापे को दूर करने के उपाय, प्रजनन संबंधी ज्ञान तथा मोक्ष प्राप्ति के उपाय जैसे मानव जीवन के हर पग पर उपयोगी, विश्व कल्याणकारी, लोक उपकारी ज्ञान सम्मिलित हैं साथ ही जंत्र मंत्र, जादू ,टोना, टोटका, पिशाच, राक्षस, नकारात्मक शक्तियों के बारे में भी इस वेद में प्रमुखता से प्रकाश डाला गया है।
आयुर्वेद के संदर्भ में अथर्ववेद का महत्व सबसे अधिक है। इस वेद में शांति-पुष्टि और अभिचारिक दोनों प्रकार के अनुष्ठानों का वर्णन बहुत विस्तार से किया गया है।
चरणव्यूह ग्रंथ के अनुसार अथर्ववेद की 9 शाखाएं हैं जिनके नाम हैं- पैपल (पिप्लाद), दान्त, प्रदान्त, स्नात, सौल, ब्रह्मदाबल, शौनक, देवदर्शत और चरणविद्या। परंतु वर्तमान में मात्र पैपल और शौनक ये दो ही शाखाएं उपलब्ध हैं।
वैदिक विद्वानों के अनुसार अथर्ववेद में 20 काण्ड हैं और ये बीसों काण्ड सूक्तो में विभाजित हैं (एक सूक्त मैं कई मंत्र होते हैं)। वर्तमान में 730 सूक्त उपलब्ध हैं।
अथर्ववेद को मानव सभ्यता में आयुर्वेद का जनक माना जाता है। गृहस्थ आश्रम में रहते हुए पति पत्नी के अधिकारों एवं कर्तव्यों के साथ साथ विवाह के नियम, मान मर्यादाओं का भी सविस्तार वर्णन अथर्ववेद में किया गया है।
किसी भी यज्ञ विधान में चारों वेद के ज्ञाता होते हैं जो यज्ञ संपन्न करवाते हैं। इनमें ऋग्वेद के ज्ञाता को ‘होता’, सामवेद के ज्ञाता को ‘उद्गाता’, यजुर्वेद के ज्ञाता को ‘अध्वर्यु’ और अथर्ववेद के ज्ञाता को ‘ब्रह्म’ कहते हैं। यज्ञ विधान में ऋग्वेद का ‘होता’ देवताओं का आवाहन करता है, सामवेद का ‘उद्गाता’ सामगान करता है, यजुर्वेद का ‘अध्वर्यु’ देवकोटि – कर्म का विधान करता है और अथर्ववेद का ‘ब्रह्म’ पूरे यज्ञकर्म पर ‘नियंत्रण’ रखता है। इसी से अथर्ववेद की महत्ता स्पष्ट हो जाती है।
सारांश के रूप में यह कहा जा सकता है कि अथर्ववेद स्वयं में जीवन के सभी पक्षों को समेटे हुए है। यद्यपि चतुर्वेद का हर भाग स्वयं में विशेष है परंतु अथर्ववेद सबसे विशेष है। सृष्टि के गूढ़ रहस्य, दिव्य स्तुतिओं, प्रार्थनाओं, यज्ञ के अनेकानेक प्रयोग, हर प्रकार के रोगों का निदान, मानव जीवन के विभिन्न संस्कार, प्रजनन विज्ञान, परिवार, समाज, सामाजिक व्यवस्था, राजनीतिक – धार्मिक व्यवस्था, कर्तव्य – अधिकार, आत्मरक्षा जैसे जीवन के बहु उपयोगी विषयों का अद्भुत संग्रह है अथर्ववेद।
चतुर्वेद के अन्य भागों- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद में गूढ़ ज्ञान के साथ शुद्ध विज्ञान (प्योर साइंस) है परंतु अथर्ववेद में ज्ञान-विज्ञान के गूढ़ वर्णन के साथ साथ व्यावहारिक विज्ञान (अप्लाइड साइंस) का भी सविस्तार वर्णन है।