साक्षात ईश्वर हों या मनुष्य, कर्मफल से नहीं बच सका है कोई

महाभारत को संसार के‌ इतिहास में बहुत बड़ा युद्ध माना जाता है. दो भाइयों की संतानों में हुए इस युद्ध में पांडवों के साथ कौरवों में भी एक से बढ़कर बलशाली थे. महाभारत के प्रमुख पात्र धृतराष्ट्र में इतना बल था कि वे लोहे के पुतले को भी मसल देने में सक्षम थे. इसी तरह कौरवों में प्रमुख दुर्योधन भी कम बलिष्ठ नहीं था. सही मायने में दुर्योधन पांडवों के भीम की टक्कर का योद्धा था. यदि उसके युद्ध कौशल की बात की जाए, तो भी वह गदाधारी भीम के समकक्ष ही था. ऐसा इसलिए भी क्योंकि उसके युद्ध कौशल के गुरु और कोई नहीं भगवान श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम थे.

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दुर्योधन के पिता महाराज धृतराष्ट्र ने कुरुक्षेत्र के मैदान में हुए पूरे युद्ध का आँखों देखा हाल संजय के मुख से सुना था. संजय के पास ऐसी दिव्य दृष्टी थी कि, वो कुछ भी देख सकते थे. धृतराष्ट को पूरा यकीन था, कि उनके पुत्रों की इस युद्ध में विजय होगी. लेकिन एक एक करके उनके सभी पुत्रों का अंत हो गया, और फिर उनके सबसे प्रिय पुत्र दुर्योधन का भी अंत हो गया. उसके बाद महाराज धृतराष्ट्र दुःख और गुस्से से इतने ज्यादा आक्रोशित हो गए कि उन्होंने भीम का अंत करने का निश्चय लिया. और भीम से गले मिलते ही उनको मसलने की योजना के अनुसार वो भीम के पास आने की प्रतीक्षा करने लगे. पर भगवान कृष्ण को इस बात का पूर्वाभास था और उन्होंने भीम की जगह लोहे के पुतले को धृतराष्ट के सामने कर दिया. जिसके फलस्वरूप उन्होंने उस लोहे के पुतले को चूर चूर कर दिया. लेकिन उसकी वजह से उनका क्रोध शांत हो गया, और उन्होंने सभी पांडवों को क्षमा कर दिया.

लेकिन महारानी गांधारी का क्रोध शांत नहीं हुआ था और उन्होंने अपने सभी पुत्रों की मौत का ज़िम्मेदार भगवान कृष्ण को मानते हुए उन्हें श्राप दे दिया कि, उनके कुल का भी विनाश हो जाएगा. और यही हुआ. कहते हैं किसी की बद्दुआ और श्राप बिना असर के समाप्त नहीं होता. वो सभी को भुगतना होता है, फिर वो साक्षात ईश्वर ही क्यों न हों.