बेटी का पिता होना है सौभाग्य

जब महाराज दशरथ अपने चारों बेटों की बारात लेकर, जनकपुरी पहुंचे तो उन्होंने सर झुकाकर महाराज जनक को नमन किया, तो सीताजी के पिता ने उनके सामने हाथ जोड़कर विनम्रता से कहा, आप तो वरपक्ष वाले हैं, हमसे बड़े हैं, इसपर महाराज दशरथ ने कहा, आप कन्यादान कर रहे हैं, अपने कलेजे के टुकड़े का दान करने वाला बहुत महान होता है, मैं आपके सामने कुछ भी नहीं हूँ.. अब आप ही बताएँ कि दाता और याचक यानि दान देने वाले और लेने वाले में बड़ा कौन होता है??’’

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यही है हमारी विरासत और संस्कार, जिसमें लड़की का पिता होना सौभाग्य माना गया है, लेकिन समय के साथ सब कुछ बदल गया, अगर कुछ परिवारों को छोड़ दिया जाये, तो शादियों में हर जगह बेटी वालों की बराबरी की बात तो छोड़िये, उचित सम्मान तक नहीं मिलता, उन्हें कमतर समझा जाता है, मामूली बातों पर समाज में उन्हें अपमानित किया जाता है.

माँ बाप बहुत लाड़ प्यार से बेटियों की परिवरिश करते हैं, उसे पढ़ाते हैं, संस्कार देते हैं, उसकी हर बात का ख्याल रखते हैं, और वही बेटी किसी और परिवार को कन्यादान के रूप में दान कर देते हैं, तो इससे बड़ी महानता और क्या होगी, लेकिन फिर भी लड़के वाले अपने आपको किसी बादशाह से कम नहीं समझते, और लड़कीवालों की कमियां निकालना ही उनकी आदत बन गई है, यहाँ तक कि, शादी के बाद भी उम्र भर उन्हें बेटी की छोटी छोटी गलतियों के लिए ताने मारे जाते हैं.

लेकिन उन्ही परिवारों की अपनी बेटियाँ जब शादी के बाद ससुराल जाती हैं, तो अगर उनके साथ फिर ये होता है, तो उन्हें ज्यादती लगती है, कितनी अजीब सोच है ये, लेकिन इन सबके बीच हम उसे भूल जाते हैं, जो बेटी है, जो न अपने माँ बाप को परेशानी में देख सकती है, न ससुराल के खिलाफ जा सकती है, पिसती रहती है, जीवन भर..और ये सब उन परिवारों में होता है, जो पढ़े लिखे हैं, और जिनकी समाज में अच्छी खासी हैसियत है, लेकिन फिर भी ये सच बहुत भयानक है..’

हालाँकि समाज में कुछ परिवारों ने आदर्श विवाह के बहुत अच्छे उदाहरण निर्मित किये हैं, गरीब परिवारों के लिए अब सामाजिक संस्थाएं मिलकर सामूहिक विवाह का आयोजन करवाती हैं, कई जोड़े एक साथ शादी के बंधन में बांध जाते हैं, और वहां दोनों के माँ बाप को भी एक दूसरे से काफी सम्मान मिलता है.

महाराज दशरथ ने, राजा जनक को इतना सम्मान दिया था कि, जब दशरथजी, अयोध्या वापस जाने लगे तो, जनक जी ने कहा था,
‘तब बिदेह बोले कर जोरी. बचन सनेह सुधाँ जनु बोरी..
करौं कवन बिधि बिनय बनाई. महाराज मोहि दीन्हि बड़ाई..

अर्थात-: तब जनकजी हाथ जोड़कर स्नेह रुपी अमृत में डुबोकर वचन बोले – मैं किन शब्दों में विनती करूँ, हे महाराज, आपने मुझे बड़ी बड़ाई दी है..

अगर हम अहंकार से मुक्त हो जाएँ, तो सम्मान देने की भावना मन में स्वयं आ जाती है.