इस दुनियां से पहले कितनी दुनियां बनी और बिगड़ी, या फिर ये दुनियां बने हुए कितने युग बीत गए, ये किसी को नहीं पता, लेकिन एक बात हम सब जानते हैं कि, किसी भी समय, किसी भी युग और किसी भी आदमी के जीवन का स्त्री के बिना कभी कोई अस्तित्व न था, ना होगा.
स्त्री का सम्पूर्ण वजूद ही प्रेम और त्याग से मिलकर बना है, सदियों से लेकर आज तक ऐसे अनगिनत उदहारण हमें मिल जायेंगे. रामायण के एक प्रसंग में जब श्रीराम वनवास जाने से पहले माता कौशल्या से आशीर्वाद लेने के लिए उनके पास आकर कहते हैं, ‘माँ मेरी अनुपस्थिति में पिताश्री का ध्यान रखना, तो माता कौशल्या, उनसे कहती हैं, तुम्हारे, पिताश्री कह रहे हैं कि, राम का ध्यान रखना, और तुम कह रहे हो उनका ध्यान रखना, एक तरफ पति, और दूसरी तरफ पुत्र, पर मेरे बारे में किसी ने नहीं सोचा कि, मैं क्या करुँगी? और यही कहानी लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला की है, वो भी लक्ष्मण के साथ वन में जाना चाहती हैं, लेकिन लक्ष्मण कहते हैं कि, मेरी अनुपस्थिति में माताओं का ध्यान रखना, तो वहीँ जब भरत एक तपस्वी की भांति, आयोध्या से बाहर जाकर रहने लगते हैं, और श्रीराम के आने तक वहीँ रहकर राजपाट सम्हालने लगते हैं, तो उनकी, पत्नी मांडवी भी वहां, उनके साथ रहना चाहती हैं, लेकिन भरत उनसे कहते हैं कि, तुम राजमहल में रहकर माता कौशल्या का ध्यान रखना, और ये सब फिर वही करती हैं, जो उन्हें कहा जाता है, ये है स्त्री के त्याग की कहानी.
जीवन और समय दोनों बदल चुके हैं, ये महिला सशक्तिकरण का युग है, महिलाओं ने माउंट एवरेस्ट से लेकर चंद्रमा तक पहुंचकर पूरी दुनियां में अपनी कामयाबी की बड़ी बड़ी कहानियां लिखी हैं, लेकिन फिर भी उनके दिल के कोने में अपने परिवार और अपनों के लिए वही प्रेम और त्याग है, ये वो महिलाएं हैं, जो खुद भी जॉब करती हैं, और अपने टिफ़िन के साथ पति का टिफ़िन भी तैयार करती हैं, और जब शाम को थक हारकर घर आती हैं, तो फिर से पूरी energy के साथ घर के सारे काम करती हैं, इसके अलावा ऐसे कई Example हैं, जहाँ महिलाओं ने अपने परिवार और बच्चों की अच्छी तरह से देखभाल के लिए अपने अच्छे खासे कैरियर को विराम लगा दिया.
स्त्री के बिना परिवार, समाज, देश, दुनियां सब अधूरे हैं, या फिर यूँ कह सकते हैं कि, उनके बिना किसी भी जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती, स्त्री यदि चाहे तो कुछ भी कर सकती है, क्रोध, प्यार, त्याग, दया, क्षमा सब उसके व्यक्तिव का हिस्सा हैं, लेकिन फिर भी वो अपने होने का आभास हमेशा जिंदा रखती है, और सबसे उत्तम गुण ही उसके व्यक्तिव में सबसे ऊपर रहते हैं, तो फिर ये हमारा भी दायित्व है कि, जहाँ स्त्री के सम्मान की बात हो तो बिना किसी झिझक के हमारा सर उसके आगे नतमस्तक हो जाये, इससे पुरुष के व्यक्तित्व की गरिमा बढ़ जाती है. जहाँ स्त्री के अधिकार की बात हो तो, हम दो कदम आगे बढ़कर उसे वो हक दिलाने की पहल करें, और जहाँ उसके त्याग की बात हो, तो हम भी उसमें अपनी बराबर की भागीदारी करें, यानि हर बार, हर जगह सिर्फ स्त्री ही क्यों, पुरुष को भी अपनी सुविधाओं से समझौता करना चाहिए, क्योंकि स्त्री तो सदैव से हर जगह त्याग करने के लिए तत्पर ही रहती है.
स्त्री के जीवन को परिभाषित करते हुए किसी ने क्या खूब लिखा है..
“दिन की रौशनी ख्वाब बनाने में गुज़र गई,
रात की नींद बच्चे को सुलाने में गुज़र गई,
जिस घर में मेरे नाम की तख्ती भी नहीं,
सारी उम्र उसी घर को सजाने में गुज़र गई…”