दशहरा भारत के प्रमुख त्योहारों में से एक है। यह पूरे देश में उत्साह और उमंग से मनाया जाता है। दशहरे को असत्य पर सत्य की जीत का प्रतीक माना जाता है। इस दिन भगवान श्रीराम ने रावण का अंत करके लंका पर विजय पाई थी। दशहरे के दिन राजस्थान के कोटा में एक भव्य मेले का आयोजन किया जाता है। यह मेला राजस्थान के सबसे बड़े मेलों में से एक हैं। मेले का प्रारम्भ नवरात्री के प्रथम दिन से होता हैं। इस दौरान मेले में रामलीला का मंचन भी किया जाता है। दशहरे पर रावण, कुंभकरण और मेघनाथ के विशाल पुतलों का दहन किया जाता है। इस नज़ारे को देखने के लिए दूर-दूर से लोग कोटा पहुंचते हैं।
कोटा दशहरा मेले में राजस्थान की सांस्कृतिक विरासत के दर्शन भी होते हैं। यहां लोगों के मनोरंजन के लिए कवि सम्मेलन, मुशायरा, संगीत संध्या, गजल और कई सांस्कृति कार्यक्रम होते हैं। मेले में विभिन्न प्रकार के झूले एवं सर्कस आदि होते हैं। साथ ही पूरे देश से व्यापारी कोटा मेले में सामान बेचने के लिए आते हैं।
कोटा दशहरा मेले का इतिहास लगभग 128 साल पुराना है। कोटा के प्रथम शासक राव माधोसिंह ने लगभग 450 साल पहले दशहरे पर उत्सव और रावण वध की परम्परा शुरू की थी। साल 1892 में राव उम्मेद सिंह के समय दशहरे पर मेला आयोजित करने की परम्परा शुरू हुई।
मान्यता है कि सप्तमी के दिन करणी माता सवारी निकाली जाता थी। इस दिन महाराव नांता के भैरूजी और अभेड़ा की करणी माता की पूजा करने के लिए जाते थे। अष्टमी को हवन और अस्त्र-शस्त्र का पूजन किया जाता था। नवमी के दिन महाराव आशापुरी देवी की सवारी का आयोजन होता था। दशमी के दिन रंगबाड़ी में बालाजी का पूजन होता था। इसके बाद शाम के समय महाराव हाथी पर बैठकर रावण वध हेतु जाते थे। इस दौरान सेना की टुकड़ी उनके साथ चलती थी। इसे देखने के लिए बड़ी संख्या में लोग पहुंचते थे। रावण वध स्थल पर रावण, मेघनाथ और कुंभकरण के पुतले बनाए जाते थे। महाराव के वहां पहुंचने के बाद लोहे के रस्से को खींचकर रावण, मेघनाथ और कुंभकरण की गर्दन को धड़ से अलग कर दिया जाता था। गर्दन के अलग होते ही 19 तोपों की सलामी दी जाती थी। यह रावण पर विजय का प्रतीक होता था।