चित्रकूट में राम और भरत मिलाप

राम जी को मनाकर अयोध्या वापस लाने के लिए भरत जी अपनी माताओं गुरुजनों प्रजा और सेना के साथ वन की ओर निकल पड़ते हैं। निषादराज को जब दूतों से पता चलता है कि भरत इतनी बड़ी सेना के साथ आ रहे हैं तो उन्हें शंका हो जाती है कि कहीं वो राम जी का वध करने तो नहीं जा रहे और इसी शंका में वो अपनी सेना को युद्ध की तैयारी का आदेश दे देते हैं। तभी उनमें से एक वृद्ध व्यक्ति उन्हें भरत का विचार जानने की सलाह देता है जिसे निषादराज तुरंत मान लेते हैं और सेना को सावधान रहने की सलाह देकर भरत का मन जानने के लिए राज्य की सीमा पर आते हैं।

यहां दो बातें ध्यान देने योग्य हैं– एक तो निषाद का अपनी पूरी सेना सहित राम जी पर प्राण लुटा देने का संकल्प और दूसरा राजा होते हुए भी एक वृद्ध प्रजा की सलाह का उचित सम्मान। रामायण का हर सुपात्र एक नया आदर्श एक नया उदाहरण प्रस्तुत करता है।

सुमंत्र जी द्वारा निषाद का परिचय दिए जाने के बाद भरत जी निषाद से वैसे ही मिलते हैं जैसे वे अपने भैया राम से मिलते हैं। निषादराज भरत जी को प्रणाम करते हैं और भरत जी निषादराज के चरण छू लेते हैं, ये कहकर कि आप मेरे भैया के मित्र हैं तो मेरे लिए भैया की ही तरह पूज्य हैं। ये हैं रामायण के चरित्रों के संस्कार।

Jai Shriram 🙏#goodmorning

Gepostet von Arun Govil am Samstag, 23. Mai 2020

जब भरत जी को पता चला कि राम जी पैदल गए हैं और वह भी बिना पादुका पहने तो भरत जी भी बिना पादुका के पैदल ही चित्रकूट तक गए। भरत जी को सेना के साथ आया हुआ देखकर लक्ष्मण जी को भरत जी पर संदेह होता है तो इसका निवारण करते हुए राम जी कहते हैं ‘कभी कभी आंखों से देखा हुआ भी सत्य नहीं होता। राजपद का प्रमाद साधारण मानव को हो सकता है, इंद्र जैसे देवता को भी हो सकता है परंतु भरत का स्थान देवताओं से भी ऊंचा है। अयोध्या तो क्या त्रिलोक का राज्य भी भरत को दे दिया जाए तो भी उसे राज मद नहीं हो सकता’। 

पारिवारिक प्रेम इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि जिस माता के आदेश पर राम जी को सीता लक्ष्मण सहित वनवास हुआ। चित्रकूट में मिलने पर सबसे पहले राम जी उन्हीं कैकई माता का चरण वंदन करते हैं।

रात्रि में विश्राम करते समय सीता जी कैकई माता के चरण दबाती हैं और उनके मन के संकोच को हर तरह से दूर करने का प्रयास करती हैं। राम जी के मन में या सीता जी के मन में कैकेयी माता को लेकर कोई शिकायत नहीं है कोई रोष नहीं है। 

चित्रकूट में राम और भरत का संवाद मात्र दो भाइयों के बीच का संवाद नहीं है। बल्कि यह संवाद पारिवारिक रिश्तो के लिए,सामाजिक संतुलन के लिए,राजनीतिक व्यवस्था के लिए, वचन सत्य और धर्म की रक्षा के लिए है। एक बहुत बड़ा ज्ञानकोष है। 

भरत अपने प्रेम और सांसारिक व्यावहारिकता भरे तर्कों से राम को अयोध्या वापस ले जाना चाहते हैं और राम अपने सत्य और धर्म के मर्यादित उत्तरों से स्वयं को वन में ही रखना चाहते हैं। प्रेम, त्याग और स्वार्थहीनता का इससे बड़ा प्रमाण, इससे बड़ा उदाहरण शायद ही इतिहास में कहीं हो।

भरत कहते हैं कि मैं आप के बदले वन में रह जाता हूं आप अयोध्या चले जाओ इस पर रामजी उन्हें समझाते हुए कहते हैं -‘धर्म कोई व्यापार नहीं होता भरत जो वस्तुओं का अदल बदल कर लिया जाए। धर्म अति कठोर और व्यक्तिगत होता है।’ अपने अपने कर्तव्य इंसान को स्वयं निभाने चाहिए।