भक्त प्रहलाद मानव इतिहास का एक ऐसा नाम है जिसने भक्ति की धारा को एक नया मोड़, भक्ति की भावना को एक नया आधार और परमेश्वर की सर्व व्यापकता का एक नया प्रमाण दिया।
यद्यपि सतयुग में सत्य और धर्म का ही बोलबाला होता है तथापि कालांतर में प्रकृति में कुछ विकार आ ही जाता है और इसी विकार के कारण दो राक्षस उत्पन्न हुए हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष। हिरण्यकश्यप बहुत प्रतापी राजा था और उसकी रानी थी कयाधु। इन्हीं कयाधु के पुत्र हुए परम वैष्णव प्रहलाद।
शास्त्रीय मान्यता है कि जब प्रहलाद गर्भ में थे तभी हिरण्यकश्यप तपस्या करने चला गया और परिस्थितिवश कयाधु को नारद जी के आश्रम में रहना पड़ा जहां गर्भावस्था में ही नारद जी द्वारा भक्त प्रहलाद ने भक्ति का उपदेश सुना और समय आने पर वहीं प्रहलाद का जन्म हुआ। बचपन का प्रारंभिक काल नारद जी के आश्रम में बीतने और साधु-संतो की संगति के कारण प्रहलाद को बचपन से ही भगवत भक्ति में अथाह रूचि और ईश्वर का ज्ञान हो गया। हिरण्यकश्यप जब तपस्या करके वापस आया तो कयाधु, प्रहलाद के साथ फिर महल में रहने लगीं।
हिरण्यकश्यप को जब ये पता चला कि उसका पुत्र प्रहलाद विष्णु का भक्त है तो वह बहुत क्रोधित हुआ क्योंकि विष्णु भगवान ने ही वराह रूप धारण करके उसके भाई हिरण्याक्ष का वध किया था। हिरण्यकश्यप ने बहुत प्रकार से प्रहलाद को समझाया कि वह विष्णु की भक्ति ना करे और उसे अर्थात हिरण्यकश्यप को ही भगवान माने परंतु प्रहलाद किसी भी तरह समझाने से नहीं माने तो हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद को मारने के अनेकानेक उपाय किए-
भोजन में विष मिलवा दिया,
बंद कमरे में विषधर सांप छोड़ दिए,
सैनिकों द्वारा शस्त्र से काट डालने का आदेश दिया,
हाथी के पैर के नीचे कुचलने का प्रयास किया,
पर्वत से नीचे फेंक दिया गया,
पत्थर बांधकर समुद्र में फेंक दिया गया,
भूखे शेर के सामने डाल दिया गया ,
परंतु किसी भी तरह से प्रहलाद का अंत नहीं हुआ, हर बार एक चमत्कारिक ढंग से प्रहलाद की जीवन रक्षा होती रही।
हिरण्यकश्यप की एक बहन थी होलिका जिसने तपस्या से एक ऐसा वस्त्र प्राप्त किया था जिसे पहन कर बैठने पर वह अग्नि में जल नहीं सकती थी। उसने प्रहलाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि में प्रवेश किया तो प्रहलाद के भक्ति प्रताप से प्रहलाद को आँच भी नहीं आई और होलिका जलकर भस्म हो गई।
ईश्वर पर अटल विश्वास की जीत और शक्तिशाली होने पर भी अन्याय की हार का यह त्यौहार हमारे धर्म में होलिका दहन और रंगोत्सव के रूप में मनाया जाता है। प्रहलाद पर उनके पिता द्वारा किए गए इन अत्याचारों के बाद भी उनका सकुशल रहना, हमें ये सिखाता है कि मृत्यु जब तक नहीं आनी है तब तक जीव को कोई भी किसी भी प्रकार से मार नहीं सकता।
प्रहलाद को मारने का हर प्रयास करके हार जाने के बाद एक दिन भरे दरबार में हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद से कहा-‘प्रहलाद मैं ही त्रिलोकीनाथ हूं, मैं ही भगवान हूं, मुझे भगवान मान नहीं तो मैं तेरा वध कर दूंगा’ प्रहलाद जी ने कहा-‘पिताजी आप सर्वशक्तिमान हो सकते हैं, महान हो सकते हैं पर आप भगवान नहीं हो सकते। भगवान एक ही हैं और वे हैं श्री हरि विष्णु।इस पर हिरण्यकश्यप बहुत क्रोधित हुआ और उसने कहा -‘अगर वह भगवान है तो कहां है?’
प्रहलाद जी ने कहा ‘वह सर्वत्र हैं’ हिरण्यकश्यप ने राज दरबार के खंभे की ओर देखते हुए कहा- ‘सर्वत्र है तो क्या इस खंभे में भी है?’
प्रहलाद जी ने कहा – ‘अवश्य है पिता श्री।
‘हरि व्यापक सर्वत्र समाना’
हिरण्यकश्यप ने क्रोध में आकर उस खंभे पर घूँसा मारा, खंभा टूट गया और प्रहलाद के आत्मविश्वास को मूर्तिमान करते हुए उस खंभे से नरसिंह रूप में भगवान श्रीहरि विष्णु प्रकट हो गए। भक्तों पर किए गए अत्याचार के कारण और हिरण्यकश्यप की मृत्यु का समय उपस्थित हो जाने के कारण नरसिंह भगवान ने क्रोध में आकर अपनी गोद में रखकर हिरण्यकश्यप का वध कर दिया। इसके बाद प्रहलाद जी ने तरह तरह से स्तुतियाँ और प्रार्थनाएं करके नरसिंह भगवान के उग्र रूप को शांत किया, उनका आशीर्वाद लिया और उन्हीं के निर्देश पर राज्यभार ग्रहण करके बहुत काल तक पृथ्वी पर धर्म पूर्वक राज करते रहे।
यद्यपि प्रहलाद जी का जीवन आज शास्त्रों में ही लिखा हुआ रह गया है परंतु हमें उनके जीवन की घटनाओं से अपने जीवन के लिए बहुत सारी उपयोगी शिक्षा मिलती हैं जिन्हें हमें अपने जीवन में उतारना चाहिए। ईश्वर पर पूर्ण विश्वास और पूर्ण समर्पण ही हमें सुरक्षित भी रखता है, जीवन में सुखी भी रखता है और जीवन के बाद मोक्ष का विधान भी ईश्वर की कृपा से ही होता है।
इति कृतम्