पौराणिक व्यक्तित्व (हमारे पूर्वज) ध्रुव :- इच्छाशक्ति और दृढ़ संकल्प के अटल प्रमाण–

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भारतवर्ष के इतिहास में मानव सभ्यता के आरंभ से ही एक से बढ़कर एक महान व्यक्तित्व हुए हैं इन्हीं में से एक नाम है बालक ध्रुव का। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार ध्रुव का समय मानव सभ्यता के बहुत ही प्रारंभिक काल का है।

ध्रुव, महाराजा उत्तानपाद के पुत्र थे और उत्तानपाद- मानव प्रजाति के जनक महाराजा मनु के पुत्र थे अर्थात ध्रुव स्वयंभुव मनु के पौत्र थे। ध्रुव के पिता महाराजा उत्तानपाद की दो रानियां थी सुनीति और सुरुचि। महारानी सुनीति बड़ी थी और इनके पुत्र थे ध्रुव और दूसरी रानी सुरुचि के पुत्र थे उत्तम।

महाराजा उत्तानपाद अपनी छोटी रानी सुरुचि से अधिक लगाव रखते थे। एक दिन महाराजा उत्तानपाद अपने सिंहासन पर बैठे थे और गोद में ध्रुव को बिठा रखा था उसी समय रानी सुरुचि वहां आई और उसने महाराज की गोद में सुनीति के बेटे ध्रुव को देखा तो उसे ईर्ष्या हो गई और उसने यह कहकर कि ‘राज सिंहासन और महाराजा की गोद में बैठने का अधिकारी वही है जो मेरे गर्भ से जन्मा हो’ बालक ध्रुव को डांटते हुए वहां से भगा दिया।

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ध्रुव अपनी माता सुनीति के पास गए और उन्हें सारी बात कह सुनाई। इस पर माता सुनीति ने दुखी होकर ध्रुव को समझाया कि पुत्र! पद प्रतिष्ठा तो भगवान की देन होती है वही सब कुछ दे सकते हैं वही हमारे दुख काट सकते हैं।

ध्रुव के बाल मन पर माता की बातों का गहरा प्रभाव पड़ा और वे घर छोड़कर जंगल की तरफ चल पड़े भगवान को पाने। संयोग से इसी समय ब्रह्मांड में निरंतर भ्रमण करते रहने वाले देवर्षि नारद की दृष्टि पड़ी इस बालक पर तो वे धरती पर उतर आए इसे समझाने। परंतु बालक ध्रुव यह दृढ़ निश्चय कर चुके थे कि अब वह भगवान का साक्षात्कार करके ही रहेंगे। बालक के अडिग संकल्प को देखकर नारद जी ने उन्हें द्वादश अक्षर मंत्र का उपदेश दिया। ये मंत्र है-

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

ध्रुव ने नारद जी को गुरु स्वीकार करके यमुना नदी के किनारे मधुबन (जो आज का मथुरा वृंदावन है) में बैठकर इसी मंत्र का जप प्रारंभ कर दिया। शास्त्रों और विद्वानों का कहना है कि 5 वर्ष के बालक ध्रुव ने 6 महीने लगातार एक पैर पर खड़े रहकर इस द्वादश अक्षर मंत्र का जाप किया। निश्छल मन और दृढ़ संकल्प के साथ की गई प्रार्थना से भगवान श्रीहरि अति शीघ्र प्रसन्न हुए और उन्होंने ध्रुव को दर्शन देकर उन्हें अचल, अक्षय, अविनाशी पद प्रदान किया। भगवान श्रीहरि ने ब्रह्मांड का एक अलौकिक ज्योतिर्मय लोक ध्रुव को देकर उसे ‘ध्रुवलोक’ नाम दिया और यह भी वरदान दिया कि प्रलय काल में भी इस लोक का नाश नहीं होगा।

अपनी विमाता द्वारा उपेक्षित होकर, जन्म दायिनी माता द्वारा शिक्षित होकर और नारद जी द्वारा दीक्षित होकर 5 वर्ष के एक बालक ने वह अविनाशी पद प्राप्त किया जो बड़े-बड़े ऋषियों, मुनियों, तपस्वियों को भी प्राप्त नहीं होता।

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आज भी अगर हम उत्तर दिशा की ओर देखें तो सुदूर आकाश में एक ऐसा तारा दिखता है जो रात के किसी भी प्रहर में, महीने की किसी भी रात में, पूरे साल एक ही जगह दिखाई देता है। रात के छोटी बड़ी होने, दिन, महीने, ऋतुयें, मौसम या साल बदलने का इस तारे की स्थिति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, यह तारा आसमान में जहां है वहीं का वहीं पूरे साल देखा जा सकता है। इसे ध्रुव तारा कहा जाता है।

ध्रुव ने अपने संकल्प और तप द्वारा यह प्रमाणित कर दिया कि यदि ठान लिया जाए तो किसी भी आयु में, किसी भी परिस्थिति में बड़े से बड़ा लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।
इति कृतम्