मित्रता के लिए कर्ण का समर्पण भी रास नहीं आया दुर्योधन को

कहते हैं इंसान को हमेशा उनका कर्ज़दार रहना चाहिए, जिन्होंने आपके बुरे समय में साथ दिया हो. अंजाम की खबर तो कर्ण को भी थी लेकिन बात सिर्फ दोस्ती निभाने की थी, और कर्ण ने भी वही किया. भले ही महाभारत का युद्ध धर्म और अधर्म के बीच एक महासंग्राम था, लेकिन उस युद्ध में कई योद्धा ऐसे थे जो जान बूझकर अधर्म का साथ निभाने के लिए मजबूर थे. भीष्म पितामह जहाँ कौरव वंश के सरपरस्त बनकर उस युद्ध में शामिल हुए थे, तो गुरु द्रोण अपने पुत्र अश्वत्थामा के कारण कौरवों का साथ दे रहे थे. क्योंकि अश्वत्थामा और दुर्योधन में अपार मित्रता थी. पर उस युद्ध में एक ऐसा योद्धा भी था, जो महारथी था, बहुत बड़ा धनुर्धर था, फिर भी उसे पता था कि, उसका अंत निश्चित है, क्योंकि पांडवों की सेना पर भगवान श्रीकृष्ण का आशीर्वाद था और उनके ही मार्गदर्शन में युद्ध लड़ा जा रहा था. लेकिन बात मित्रता निभाने की थी. चाहे फिर अंजाम कुछ भी हो. कर्ण ने भी यही किया. पूरी शिद्दत से मित्र की हर बात मानी, अपने सभी इच्छाओं को तिलांजलि दे दी.

और उसके बाद माता कुंती भी अपने पुत्रों के जीवन दान के लिए उनसे निवेदन किया. उनके कवच और कुंडल भी दान में मांग लिए गए. इसके बाद भी कर्ण ने अपने वचन की गरिमा पर आंच नहीं आने दी. और मित्र के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया. सूर्यपुत्र कर्ण एक ऐसे महारथी थे, जिसपर दुर्योधन के साथ समस्त कौरव सेना आँख मूंदकर भरोसा करती थी, और कर्ण ने भी बखूबी दुर्योधन के भरोसे का मान रखा, और हर जगह पांडवों की सेना के सामने पहाड़ बनकर खड़े हो गए. फिर जब एक एक करके सब योद्धा धराशायी होते गए, तो दुर्योधन ने कर्ण को ही अपना सेनापति बनाया, और पांडवों का अंत करने के लिए कहा. लेकिन उससे पहले कुंती माता ने कर्ण से मिलकर अपने पुत्रों का जीवन दान माँगा, हालाँकि कर्ण भी माता कुंती के ही पुत्र थे, लेकिन दुर्योधन से अपने वचन के कारण बंधे हुए थे, और उन्होंने कह दिया, अगर आप मुझे भी अपना पुत्र मानती हैं तो, आपके पांच पुत्र जीवित रहेंगे, युधिष्ठिर, भीम, नकुल और सहदेव तो रहेंगे ही, लेकिन अर्जुन की जगह या मैं रहूँगा, या मेरी जगह अर्जुन. माता कुंती दोनों को ही नहीं खोना चाहती थीं, पर युद्ध नीतियों के आगे वो भी मजबूर थीं.

अगले दिन जब युद्ध का बिगुल बजा तो श्रीकृष्ण ने युद्ध भूमि में कर्ण को अधर्म की उन नीतियों का भान कराया, जो वो, कौरवों के साथ मिलकर हमेशा करते रहे, और अंत में कर्ण समझ गए कि, उन्होंने जीवन भर सिर्फ अधर्म का साथ दिया, और जब उनके रथ का पहिया रणभूमि में धंस गया, तो उसे निकालने के बहाने एक तरह से उन्होंने युद्ध भूमि में समर्पण कर दिया, और अर्जुन ने उनका अंत कर दिया.
कर्ण का यही समर्पण दुर्योधन को रास नहीं आया, और उसने जीवन भर की वफादारी को दो क्षण में भुलाकर कर्ण को धोखेबाज़ कह दिया. क्योंकि स्वयं दुर्योधन किसी का वफादार नहीं था. उसे दोस्ती के क़र्ज़ की कीमत पता ही नहीं थी. लेकिन कर्ण उस युद्ध में वो कर गए, कि जाते जाते वीरता का का एक इतिहास लिख गए.