राजा होने के बाद भी मर्यादा पूर्वक संतों की तरह जीवन जिया भगवान श्रीराम ने

मनुष्य के जीवन में भगवान श्रीराम के आदर्शों का बहुत अहम स्थान है. मर्यादा में रहते हुए एक राजा होने के बाद भी संतों की तरह जीवन जीने का जैसा उदहारण रामायण में है, वो काफी होता है ये समझने के लिए, कि सत्कर्मों के मार्ग पर रहकर भी अच्छा जीवन व्यतीत कर सकते हैं. कठिनाइयाँ चाहे जितनी हों, जीवन में त्याग की भावना इंसान को अवश्य अपनाना चैये. क्योंकि स्वयं प्रभु राम और उनके भाइयों ने भी यही किया था.   

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जैसे रामायण में अयोध्या जैसे वैभवशाली साम्राज्य को अस्वीकार करते हुए, भरत अपने भाई श्रीराम से कहा कि, आप बड़े हैं इसलिए, राजसिंहासन पर आपका ही अधिकार है, लेकिन रामजी ने उन्हें समझाया कि, जिस वचन के लिए हमारे पिताश्री महाराज दशरथ ने अपने प्राण तक त्याग दिए, इसलिए धर्म का पालन करने के लिए तुम्हें ही इस राज्य का राजा बनना होगा, पर दोनों में से कोई भी सत्ता लेने को तैयार नहीं होता, और अंत में  श्रीराम की चरण पादुका लेकर भरत अयोध्या लौट जाते हैं, और 14 वर्ष तक उनकी पूजा करते हुए, रामजी के प्रतिनिधि बनकर राज्य सम्हालते हैं. जब भी इस दुनियां में भाइयों के प्रेम की कोई कहानी सामने आती है, तो श्रीराम और भरत उस कहानी के सबसे बड़े नायक होते हैं.

लेकिन आज ज़्यादातर रिश्तों में, त्याग तो छोड़िये प्रेम की भावना भी बहुत कम देखने को मिलती है, आये दिन राजनैतिक बर्चस्व की लड़ाई में परिवार के लोग ही एक दूसरे को सत्ता से बेदखल कर देते हैं, कभी किसी का पुत्र मोह आगे आकर असली हक़दार और काबिल उत्तराधिकारी को छोड़कर, अपने बेटे को सत्ता पे काबिज कर देता है, जैसा महाभारत में हुआ था, तो कभी बेटा, अपने पिता को ज़बरन सत्ता से बेदखल कर देता है, हालांकि संपन्न परिवारों में ही ऐसे किस्से ज्यादा सुनने को मिलते हैं.

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लेकिन एक बड़ा सच ये भी है कि, आज भी ये दुनियां रिश्तों में भरोसे, और प्यार के बलबूते पर ही चलती है, तभी तो देश और दुनियां में विपत्ति के वक़्त बड़े बड़े दानवीर सामने आते हैं, और दिल खोलकर अपनी सम्पत्ति का दान करते हैं, जो एक तरह से त्याग का ही रूप है.