वैदिक धर्म के प्राचीनतम ग्रंथों ‘चतुर्वेद’ का एक प्रमुख भाग है ‘यजुर्वेद’। इस वेद में यज्ञ की वास्तविक प्रक्रिया का उल्लेख है। यजुर्वेद के कुल मंत्रों की संख्या है तीन हजार नौ सौ अट्ठासी (3988) हैं जिनमें छ: सौ तिरसठ (663) मंत्र ऋग्वेद के और कुछ मंत्र अथर्ववेद के हैं। यह वेद गत्यात्मक है और इसमें प्रयुक्त मंत्रों को यजुस कहा जाता है। यज का अर्थ है समर्पण और समर्पण की क्रियाएं जैसे- यज्ञ, हवन, तर्पण, सेवा, श्राद्ध, योग, इंद्रिय निग्रह आदि को यजन कहा गया है। इसी शाब्दिक अर्थ के संदर्भ में इस वेद का नाम यजुर्वेद है। इस वेद की रचना का स्थान ‘कुरुक्षेत्र’ और इसका रचनाकाल आज से लगभग सात सौ से पंद्रह सौ ईसा पूर्व का माना जाता है।
यह कर्मकांड प्रधान वेद है। इस ग्रंथ में आर्यों के सामाजिक और धार्मिक जीवन का वर्णन मिलता है।जीवन के चार आश्रम- विद्यार्थी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास के साथ ही समाज के चार वर्णों – ब्राह्मण (बुद्धिजीवी), क्षत्रिय(पराक्रमी), वैश्य (वाणिज्य दक्ष)और शूद्र ( कर्मठ) का विस्तृत वर्णन है।
यजुर्वेद में वैदिक काल के बाद के युगों की राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक जीवन व्यवस्था का विस्तृत वर्णन है। वैदिक काल के मुख्य कर्मकांडों के लिए यज्ञ आयोजन के मंत्रों का संग्रह यजुर्वेद में किया गया है।
इस वेद में—
अग्निहोत्र
अश्वमेध
वाजपेय
सोम यज्ञ
राजसूय
अग्नि चयन
आदि का विस्तृत वर्णन है।
यजुर्वेद आज भी मानव जीवन में किसी न किसी रूप में उपयोग में आ रहा है क्योंकि जीवन के सभी संस्कारों एवं कर्मकांडों के अधिकांश मंत्र यजुर्वेद के ही हैं। यजुर्वेद के संप्रदायों की मान्यता है जिनमें ‘ब्रह्म संप्रदाय’ कृष्ण यजुर्वेद तथा ‘आदित्य संप्रदाय’ शुक्ल यजुर्वेद से संबंधित है। यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- ‘कृष्ण यजुर्वेद’ और ‘शुक्ल यजुर्वेद’। प्रचलन के आधार पर कृष्ण यजुर्वेद दक्षिण भारत में और शुक्ल यजुर्वेद उत्तर भारत में अधिक प्रचलित है। मानव समाज में विश्व प्रसिद्ध गायत्री मंत्र (36:03)और महामृत्युंजय मंत्र (03:60)इसी वेद के हैं।
महर्षि पतंजलि द्वारा उल्लिखित यजुर्वेद की 101 शाखाओं में वर्तमान में मात्र चार – तैत्तिरीय, मैत्रायणी, कठ और कपिष्ठल कठ ही उपलब्ध हैं। यजुर्वेद की ये शाखाएं ‘कृष्ण यजुर्वेद’ का प्रतिनिधित्व करती हैं। इस शाखा को तैत्तिरीय संहिता भी कहा जाता है।
शुक्ल यजुर्वेद शाखा में उन्नीस सौ नब्बे (1990) मंत्र और 15 शाखाएं- काण्व, माध्यंदिन, जाबाल, बुधेय, शाकेय, तापनीय, कापीस, पौड्रवहा, आवर्तिक, परमावर्तिक, पाराशरीय, वैनेय, बौधेय, गालव और वाजसनेयी हैं। इस शाखा में चालीस (40) अध्याय हैं। उन्तालीस (39) अध्यायों में यज्ञ विधान का विस्तृत वर्णन है और चालीसवां (40 वां) अध्याय उपसंहार है जिसे ‘ईशावास्योपनिषद’ कहते हैं।
वेदों को ज्ञाता ऋषियों, गुरुओं द्वारा सुनकर ही आगे बढ़ाने की परंपरा रही है इसी कारण कालांतर में धीरे-धीरे पाठ भेद होता गया। यद्यपि मूल रूप से यजुर्वेद की दोनों शाखाओं के मंत्र एक ही हैं परंतु उच्चारण में भेद होने के कारण इनमें दो शाखाएं बन गईं। युगों युगों से मात्र सुनकर, याद रखकर और उच्चारण करके आगे बढ़ाने के कारण स्वाभाविक है कि उच्चारण में आंशिक भेद हो जाता है। वर्तमान भारत वर्ष में बंगाल में सामवेद, मध्य भारत में यजुर्वेद तथा महाराष्ट्र सहित दक्षिण भारत में ऋग्वेद का प्रभाव अधिक दिखाई पड़ता है।