18 साल की उम्र में इतिहास बना दिया, भारत के इस लाल ने

आज़ादी यूँ ही नहीं मिलती, बहुत कुछ करना पड़ता है, कई बार मरना पड़ता है. बार बार जन्म लेकर धरती पर आना पड़ता है. और बार बार इस जहाँ से आज़ादी का ज़ज्बा मन में लेकर जाना पड़ता है. इस देश की आज़ादी के लिए भी कई साल या फिर यूँ कहें कई दशकों तक लम्बी लड़ाई चलती रही. कई लोगों ने अपनी जान की बाज़ी लगाकर आज हम सबको खुली हवा में जीने और सांस लेने का मौका दिया है. भारतीय स्वाधीनता संग्राम में जान न्योछावर करने वाले प्रथम सेनानी खुदीराम बोस को माना जाता है. जिन्हें 11 अगस्त 1908 को फांसी दे दी गई. उस समय उनकी उम्र महज 18 साल कुछ महीने थी. अंग्रेज सरकार उनकी निडरता और वीरता से इतनी डरी हुई थी कि उनकी कम उम्र के बावजूद उन्हें फांसी की सजा सुनाई गयी. यह बालक हाथ में गीता लेकर खुशी-खुशी फांसी चढ़ गया. उनकी वीरता ने हिंदुस्तानियों में आजादी की जो ललक पैदा की उससे स्वाधीनता आंदोलन को नया बल मिला. देश की आजादी की लड़ाई में कुछ नौजवानों का समर्पण ऐसा था कि, उनकी वजह से अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिल गई थी. खुदीराम बोस की घटना ने पूरे देश में स्वतंत्रता संग्राम का रूख बदलकर रख दिया.

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खुदीराम बोस की लोकप्रियता का यह आलम था कि उनको फांसी दिए जाने के बाद बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे, जिसकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था और बंगाल के नौजवान बड़े गर्व से वह धोती पहनकर आजादी की लड़ाई में कूद पड़े.

खुदीराम बोस का जन्म बंगाल में मिदनापुर जिले के हबीबपुर गांव में हुआ था. 3 दिसंबर 1889 को जन्मे बोस जब बहुत छोटे थे तभी उनके माता-पिता का निधन हो गया था. उनकी बड़ी बहन ने ही उनको पाला था. बंगाल विभाजन के बाद खुदीराम बोस स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े थे. सत्येन बोस के नेतृत्व में खुदीराम बोस ने नया जीवन शुरू किया था.

कलकत्ता (अब कोलकाता) में किंग्सफर्ड चीफ प्रेजिडेंसी मैजिस्ट्रेट देशभक्तों खासतौर पर आज़ादी के दीवानो को तंग करता था. सबने मिलकर उसे मारने का फैसला किया. युगांतर दल के नेता वीरेंद्र कुमार घोष ने घोषणा की कि किंग्सफोर्ड को मुजफ्फरपुर (बिहार) में ही मारा जाएगा. इस काम के लिए खुदीराम बोस तथा प्रफुल्ल चंद को चुना गया.

ये दोनों लोग मुजफ्फरपुर पहुंचकर एक धर्मशाला में आठ दिन रहे. इस दौरान उन्होंने किंग्सफर्ड की दिनचर्या और गतिविधियों पर पूरी नजर रखी. उनके बंगले के पास ही क्लब था. अंग्रेजी अधिकारी और उनके परिवार के लोग शाम को वहां जाते थे. 30 अप्रैल, 1908 की शाम किंग्सफर्ड और उसकी पत्नी क्लब में पहुंचे. रात के साढे़ आठ बजे मिसेज कैनेडी और उसकी बेटी अपनी बग्घी में बैठकर क्लब से घर की तरफ आ रहे थे. उनकी बग्घी का रंग लाल था और वह बिल्कुल किंग्सफर्ड की बग्घी से मिलती-जुलती थी. खुदीराम बोस तथा उनके साथी ने किंग्सफर्ड की बग्घी समझकर उसपर आक्रमण किया, जिससे उसमें सवार मां-बेटी की मौत हो गई. वे दोनों यह सोचकर भाग निकले कि किंग्सफर्ड मारा गया है.

उसके बाद दोनों करीब 25 मील भागने के बाद एक रेलवे स्टेशन पर पहुंचे. बोस पर पुलिस को शक हो गया और पूसा रोड रेलवे स्टेशन (अब यह स्टेशन खुदीराम बोस के नाम पर है) पर उन्हें घेर लिया. अपने को घिरा देख प्रफुल्ल चंद ने खुद का अंत कर लिया. पर खुदीराम पकड़े गए और उनपर मुकदमा चला. और 11 अगस्त, 1908 को उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया गया.

उनकी मौत के बाद देश में आज़ादी के आन्दोलन ने बहुत तेज़ी पकड़ ली थी. कई नौजवान अपनी जान की परवाह किये बिना इस जंग में कूद पड़े. और उसके कई सालों बाद लगातार प्रयास और कई बलिदानों के बाद हमारे देश को आज़ादी मिली. लेकिन खुदीराम बोस इस आज़ादी की जंग के पहले नायक माने जाते हैं.