क्यों माँगा था गुरु द्रोण ने एकलव्य का अंगूठा

कहते हैं, संसार में धर्म की स्थापना के लिए महाभारत से बड़ा युद्ध इतिहास में फिर दोबारा कभी नहीं हुआ। वो युद्ध जिसमें, सभी योद्धाओं को अपनों से ही लड़ना था, वो युद्ध जो अधर्म के नाश के लिए अनिवार्य था। जिस युद्ध में अर्जुन जैसे महा योद्धा ने लड़ने से इनकार कर दिया था, तब युद्ध के मैदान में ही भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें गीता का ज्ञान दिया, और लड़ने के लिए तैयार किया था। लेकिन इसी युद्ध की कुछ ऐसी भी बातें हैं, जो समय और काल ने पहले ही निर्धारित कर रखी थी। कौरवों की तरफ से भी कुछ ऐसे योद्धा थे जो इस युद्ध का रुख बदल सकते थे। परन्तु श्रीकृष्ण ने उन्हें इस बात का भान कराया कि, योद्धा का जीवन धर्म की स्थापना के लिए होना चाहिए। और उन्होंने उसका पूरा पालन किया।

ImageSource

गुरु द्रोणाचार्य, अर्जुन को विश्व का सबसे बड़ा धनुर्धर बनाना चाहते थे, और उन्होंने ऐसा ही किया। किन्तु उनके द्वारा अर्जुन को धनुर्विद्या सिखाते हुए देखकर, किसी ने चुपके से गुरु द्रोण को अपना गुरु मान लिया था, और उनकी पूरी विधा को एकाग्रता से सीखता जा रहा था। और धीरे धीरे गुरु द्रोण का एक ऐसा शिष्य तैयार हो गया, जो अर्जुन के समकक्ष खड़ा था। इस शिष्य का नाम था एकलव्य। और जिस दिन एकलव्य सामने आया, तो गुरु द्रोण को भी बहुत आश्चर्य हुआ। और एकलव्य द्वारा चुपके से ली गई दीक्षा के बदले, गुरु दक्षिणा में गुरु द्रोण ने एकलव्य से उसके दायें हाथ का अंगूठा मांग लिया।

ImageSource

एकलव्य भी जानते थे कि, बिना अंगूठे के उसके धनुर्धर होने का कोई मतलब नहीं, किन्तु वो गुरु दक्षिणा के लिए वचन दे चुका था। और गुरु आज्ञा मानते हुए उसने अपना अंगूठा काटकर गुरु द्रोण को समर्पित कर दिया।

इसके लिए गुरु द्रोण को लोगों की आलोचना का भी सामना करना पड़ा, क्योंकि सुनने वालों को यही लगा कि, अर्जुन को श्रेष्ठ बनाये रखने के लिए ही उन्होंने ऐसा किया है, यहाँ तक कि, गुरु द्रोण के पुत्र अश्वत्थामा को भी यही लगा होगा कि, उनके पिता का इस तरह का चरित्र आखिर कैसे हो गया?

ImageSource

परन्तु नियति कुछ और ही चाहती थी, धार्मिक मान्यताओं के अनुसार द्रोणाचार्य को इस बात का पता था कि, आगे जाकर धर्म युद्ध होगा, और उन्हें ये भी आभास था कि, एकलव्य के पिता कुरु राज्य के अधीन एक जनपद के प्रमुख थे, इसलिए युद्ध में एकलव्य भी अवश्य भाग लेता और कौरवों की तरफ से ही लड़ता, जो धर्म के विरुद्ध होता। अर्जुन के समकक्ष होने के कारण, अर्जुन से उसका सामना हो सकता था। हालाँकि ये तय था कि, जीत तो पांडव सेना की ही होती, किन्तु जीत में बिलम्व हो सकता था, और एकलव्य पांडव सेना को काफी क्षति पहुंचा सकता था। कहते हैं, इसी पूर्वाभास के कारण गुरु द्रोण ने दक्षिणा में एकलव्य से अंगूठा मांग लिया था।