महाभारत का युद्ध धरती पर कुछ हिसाब बराबर करने के लिए हुआ था. वो हिसाब जो धर्म और अधर्म के बीच था. न्याय और अन्याय के बीच था. अधर्म ने अन्याय किया था. धर्म के साथ दुर्भाव किया था. और उसका हिसाब होना तो ज़रूरी था. लेकिन इसकी तैयारी तो मानो नीयति ने पहले ही शुरू कर दी थी. जिसे विजेता बनाना था उसे वीर बनाने का काम बहुत पहले शुरू हो चुका था.
गुरु द्रोणाचार्य, अर्जुन को विश्व का सबसे बड़ा धनुर्धर बनाना चाहते थे, और उन्होंने ऐसा किया भी. किन्तु अर्जुन को सिखाते हुए देखकर, किसी ने चुपके से गुरु द्रोण को अपना गुरु मान लिया था. और उनकी पूरी विधा को एकाग्रता से सीखता जा रहा था. और धीरे धीरे गुरु द्रोण का एक ऐसा शिष्य तैयार हो गया, जो अर्जुन के समकक्ष खड़ा था. इस शिष्य का नाम था एकलव्य. और जिस दिन एकलव्य सामने आया, तो गुरु द्रोण को भी बहुत आश्चर्य हुआ. और एकलव्य द्वारा चुपके से ली गई दीक्षा के बदले, गुरु दक्षिणा में गुरु द्रोण ने एकलव्य से उसके दायें हाथ का अंगूठा मांग लिया. एकलव्य भी जानते थे कि, बिना अंगूठे उनके धनुर्धर होने का कोई मतलब नहीं, किन्तु वो गुरु दक्षिणा के लिए वचन दे चुके थे. और उन्होंने अपना अंगूठा काटकर गुरु द्रोण को समर्पित कर दिया.
कहते हैं कि, द्रोणाचार्य को इस बात का पता था कि, आगे जाकर धर्म युद्ध होगा. और उन्हें ये भी आभास था कि, एकलव्य के पिता कुरु राज्य के अधीन एक जनपद के प्रमुख थे, इसलिए युद्ध में एकलव्य भी ज़रूर भाग लेता और कौरवों की तरफ से ही लड़ता, जो धर्म के विरुद्ध होता. अर्जुन के समकक्ष होने के कारण, अर्जुन से उसका सामना हो सकता था. हालांकि ये तय था कि, जीत तो पांडव सेना की ही होती, किन्तु जीत में बिलम्ब हो सकता था, और एकलव्य पांडव सेना को काफी क्षति पहुंचा सकता था. कहते हैं, इसी पूर्वाभास के कारण गुरु द्रोण ने दक्षिणा में एकलव्य से अंगूठा मान लिया था.