आज इंसान का जीवन सुविधाओं का आदी हो चुका है. पहले जहाँ समाज के हर वर्ग के लिए मेहनत करना अनिवार्य होता था, वहीँ अब बहुत कम लोग मेहनत करते हैं. एक निश्चित वर्ग है जो मेहनतकश है. और बाकी के लोग सिर्फ दिमागी मेहनत करते हैं. इंसान के पूरे शरीर का एक सामंजस्य होता है. हर अंग का कार्य करना ज़रूरी है. और उसी से शारीरिक संतुलन मुमकिन है. पर अब ये मुश्किल होता जा रहा है. जिसका नतीजा समाज में भयानक स्वरुप में आ रहा है. बड़ी बड़ी बीमारियाँ इंसान को कम उम्र में ही घेर लेती हैं. और बीमारियों के भी रोज नए रूप और नाम सामने आ रहे हैं. कुछ कसर रहन सहन और खान पान ने पूरी कर दी है. फ़ास्ट फूड का कल्चर कुदरती चीज़ों से दूर कर रहा है. चौबीस घंटे एयर कंडीशन में जीने वाले खुली हवा से वंचित हैं. और इन सबके बीच है वो सच जो आगे जाकर बहुत विकट रूप में हमारे सामने आता है.
सवाल इस बात का है, जब हम खुद ही मेहनत वाली जिंदगी से दूर होते जा रहे हैं. और जीवन शैली में आलस और बीमारियाँ बढ़ती जा रहीं हैं. हम पूरी तरह अंग्रेजी दवाओं पर निर्भर होकर आयुर्वेद के घरेलू नुस्खे भूलते जा रहे हैं. तो हम अपनी आने वाली पीढ़ी को क्या देकर और सिखाकर जायेंगे. हमारी जिंदगी ही आने वाली पीढ़ियों के लिए आदर्श होती है. और जब इसमें कुछ ऐसा होगा ही नहीं तो उनके लिए हम क्या छोड़कर जा रहे हैं.
समय तेज़ी से भाग रहा है. विज्ञान का वर्चस्व दुनिया पर हावी हो चुका है. हम सब इस अंधी दौड़ में शामिल हैं. और अगर समय रहते हम सचेत नहीं हुए तो हर स्थिति के लिए हम स्वयं ही ज़िम्मेदार होंगे. मेहनत से बचने की कोशिश में हम अपने लिए ऐसी ज़मीन तैयार कर रहे हैं. जहाँ सिर्फ खाई है, अँधेरा है. और खालीपन है. इसलिए समय रहते ही सावधान होना बहुत ज़रूरी है.