महाभारत का संग्राम कई दिन तक चला, और इस संग्राम के कई नायक थे. जिन्होंने अधर्म का साथ दिया वो एक एक करके रणभूमि में गिरते जा रहे थे. पांडवों ने दुर्योधन के सभी भाइयों का अंत कर दिया था, भीष्म पितामह, पहले ही परास्त हो चुके थे. गुरु द्रोण, महारथी कर्ण, जयद्रथ, सबका अंत हो गया था, किन्तु फिर भी दुर्योधन बचा था. वो जिसने अपनी आँखों के सामने अपने निन्यानवे भाइयों का अंत होते हुए देखा था, उसके बिना आखिर कहानी का अंत कैसे होता? पर उसने सोच लिया था कि, उसका अंत नहीं होगा. लेकिन उसके सोचने से क्या होता, क्योंकि नीयति ने उसका अंत पहले ही तय कर दिया था.
हालाँकि दुर्योधन की माँ गांधारी ने अपनी तपस्या से उसके पूरे शरीर को वज्र का बना दिया था, पर श्रीकृष्ण की रचाई हुई माया में फंसकर दुर्योधन की जंघा और उसके ऊपर का हिस्सा वज्र का नहीं बन पाया. उसके बाद महाबली भीम के साथ उसका संग्राम प्रारंभ हुआ, इस संग्राम में कोई भी एक दूसरे से कम नहीं था, कभी दुर्योधन भारी पड़ा, तो कभी भीम, और जब भगवान कृष्ण को लगने लगा कि, इस तरह तो ये संग्राम बहुत दिनों तक चलता रहेगा, तब उन्होंने द्रोपदी से कहा कि, मैं वचन से बंधा हुआ हूँ. अब तुम्हारी सहायता दाऊ ही कर सकते हैं, और उन्हें भगवान बलराम के पास भेजा, जब द्रोपदी वहां पहुंची तो उन्होंने बलरामजी को धर्म और अधर्म के बीच इस संग्राम में पांडवों का साथ देने के लिए कहा. पर बलराम ने कहा कि, भीम और दुर्योधन दोनों ही मेरे शिष्य हैं, और मैं किसी का भी बुरा नहीं सोच सकता. उसके बाद भी द्रोपदी उनसे निवेदन करतीं रहीं तो, भगवान बलराम ने उन्हें इशारों में समझा दिया कि, इंसान की कमजोरी उसके बुरे कर्म होते हैं, और यही दुर्योधन के साथ है.
इसके बाद द्रोपदी समझ गईं, और उन्होंने जाकर भीम को इशारे से बताया कि, उसकी जंघा पर प्रहार करो, उसके बाद भीम ने यही किया, जंघा पर प्रहार होते ही दुर्योधन निर्जीव होकर गिर गया, और महाभारत के संग्राम के हर अधर्मी का अंत हो गया