कुछ बातों का पूर्वाभास होता है. हम सबको पता होता है, हमारे सामने आने वाली कोई घटना ऐसी भी होती है, जो हमें लगता है कि, पहले से हमारे सामने से गुजरी है. महाभारत के युद्ध में भी कई ऐसी घटनाएं थी, जिनका उस समय के कई वीरों और धुरंधरों को पहले से पूर्वाभास था. गुरु द्रोण को भी ऐसी ही एक घटना का पूर्वाभास था, इसलिए उन्होंने उस कहानी की नीयति ही बदल दी.
गुरु द्रोणाचार्य, अर्जुन को विश्व का सबसे बड़ा धनुर्धर बनाना चाहते थे, और उन्होंने ऐसा किया भी. किन्तु अर्जुन को सिखाते हुए देखकर, किसी ने चुपके से गुरु द्रोण को अपना गुरु मान लिया था. और उनकी पूरी विधा को एकाग्रता से सीखता जा रहा था. और धीरे धीरे गुरु द्रोण का एक ऐसा शिष्य तैयार हो गया, जो अर्जुन के समकक्ष खड़ा था. इस शिष्य का नाम था एकलव्य. और जिस दिन एकलव्य सामने आया, तो गुरु द्रोण को भी बहुत आश्चर्य हुआ. और एकलव्य द्वारा चुपके से ली गई दीक्षा के बदले, गुरु दक्षिणा में गुरु द्रोण ने एकलव्य से उसके दायें हाथ का अंगूठा मांग लिया. एकलव्य भी जानते थे कि, बिना अंगूठे उनके धनुर्धर होने का कोई मतलब नहीं, किन्तु वो गुरु दक्षिणा के लिए वचन दे चुके थे. और उन्होंने अपना अंगूठा काटकर गुरु द्रोण को समर्पित कर दिया.
कहते हैं कि, द्रोणाचार्य को इस बात का पता था कि, आगे जाकर धर्म युद्ध होगा. और उन्हें ये भी आभास था कि, एकलव्य के पिता कुरु राज्य के अधीन एक जनपद के प्रमुख थे, इसलिए युद्ध में एकलव्य भी ज़रूर भाग लेता और कौरवों की तरफ से ही लड़ता, जो धर्म के विरुद्ध होता. अर्जुन के समकक्ष होने के कारण, अर्जुन से उसका सामना हो सकता था. और अगर एकलव्य और अर्जुन का आमना सामना होता तो बहुत मुश्किल भी हो सकती थी. हालाँकि ये तय था कि, जीत तो पांडव सेना की ही होती, किन्तु जीत में बिलम्ब हो सकता था, और एकलव्य पांडव सेना को काफी क्षति पहुंचा सकता था. कहते हैं, इसी पूर्वाभास के कारण गुरु द्रोण ने दक्षिणा में एकलव्य से अंगूठा मांग लिया था.