मातृभूमि का ऋण चुकाना है, तो बचाना होगा धरती माँ के अस्तित्व को

इंसान के ऊपर बहुत सारे ऐसे ऋण होते हैं, जिन्हें चुकाना अनिवार्य होता है. जो हमारा धर्म भी है, और ज़िम्मेदारी भी, हालांकि ये ऐसे ऋण हैं जिन्हें चुकाया नहीं जा सकता, लेकिन बहुत हद तक हम अपना दायित्व निभाकर उस ऋण को चुकाने के एवज में परोपकार कर सकते हैं.

मातृऋण, पितृऋण, गुरु का ऋण, सृष्टि का ऋण और मातृभूमि का ऋण. ये सब ऐसे ऋण हैं, जो कभी चुकाए नहीं जा सकते, और मातृऋण और मातृभूमि का ऋण तो कभी नहीं. दोनों ही हमारी माँ हैं. दोनों के हमारे जीवन पर अनगिनत एहसान हैं. एक माँ हमें अपने गर्भ में रखती है, और दूसरी माँ अपनी पनाह में. माँ की ही तरह मातृभूमि के सवरूप की महिमा भी बहुत महान है.

रामायण में भी ये बताया गया है, जब श्रीराम वनवास जाने के लिए अपने राज्य आयोध्या की सीमा से बाहर आते हैं, तो अपनी मातृभूमि को प्रणाम करके उसकी थोड़ी सी मिट्टी अपने साथ ले जाते हैं, और अपनी कुटिया में उस मिट्टी की हर रोज़ पूजा करते हैं|

हर इंसान के जीवन में अलग अलग पड़ाव होते हैं, उसे काम धंधे के सिलसिले में अपना घर बार भी छोड़ना पड़ता है, जहाँ हम जन्म लेते हैं, हमारा बचपन गुज़रता है, वो हमारी जन्मभूमि होती है, और जिस जगह हमारा जीवन गति लेता है, वो कर्मभूमि, और जिस राष्ट्र की छत्र छाया में हम रहते हैं, वो हमारी मातृभूमि होती है|

इंसान जब अपना गाँव और शहर छोड़ता है, तो उसे अक्सर अपनी जन्मभूमि की याद आती है, और अगर उसके गाँव या आसपास का कोई भी व्यक्ति उसे मिलता है, तो उसे बहुत ख़ुशी होती है, और लगता है कि, उसका अपना कोई उसके पास है, लेकिन जब कोई, अपना वतन छोड़ता है, और परदेश में उसकी मुलाक़ात अपने देश के किसी भी कोने के इंसान से हो, तो उसकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहता, और उसे लगता है कि, अपनी मिट्टी की महक वाला कोई उसे मिल गया है, कितना अलग होता है ये एहसास, और कितना शानदार.

हम सबके ऊपर हमारी मिट्टी का क़र्ज़ होता है, इसी धरती पर अन्न, फल, फूल, सब पैदा होते हैं, यही मिट्टी हमें पानी के साधन देती है, जो जीने की पहली ज़रुरत है, इसका स्वभाव सिर्फ देना है, ये हमसे बदले में कभी कुछ नहीं मांगती, लेकिन ऋण तो चुकाना ही होता है, उसका बहुत आसान तरीका है, हमें बस हर पल मन में ये ख्याल रखना होता है कि, हम जहाँ भी रहें अपनी मातृभूमि को हमेशा नमन करना है, उसका सम्मान सबसे ऊपर है. लेकिन आज ज्यादातर लोग इस सम्मान को भूल गए हैं. हम खुद ही इसकी शांति भंग करते हैं, देश में कई बार छोटी छोटी बातों पर झगड़े होते हैं, फसाद होते हैं, आगजनी होती है, और हम अपनी मातृभूमि का क़र्ज़ चुकाने के बजाय उसे रुलाते हैं.

जिसकी पूजा करनी है, उसे तकलीफ देते हैं, उस ज़मीन को कचरे से गन्दा करते हैं, फसलों के अच्छे उत्पादन के लिए मिट्टी में ज़हरीले केमिकल डालते हैं, जिससे ज़मीन की उपजाऊ क्षमता बहुत कम हो रही है, जंगलों को लगातार काटे जाने की वजह से, पानी के कटाव को रोकना मुश्किल हो रहा है, और धरती धूप में झुलसती रहती है, पेड़ की जड़ें ही धरती को थामकर रखती हैं, और इतना कुछ सहने के बाद भी धरती हमारी परवाह करती है.

अगर हम धरती की स्वरुप बिगाड़ते रहेंगे, तो जीवन की कल्पना भी मुश्किल हो जाएगी, मातृभूमि को सम्मान देने का सबसे अच्छा तरीका है, उसका ख्याल रखना, जीवन में संतुलन बनाये रखने के लिए पर्यावरण और पृथ्वी दोनों की समान रूप से सुरक्षा करनी होगी, ज्यादा से ज्यादा पेड़ों को लगाना होगा, कीटनाशक का उपयोग कम करना होगा, विषैले पदार्थों और गंदगी से भी धरती को बचाना होगा, तभी ये हमारा ख्याल रखने में सक्षम होगी.