राम का राज धर्म

 

संपूर्ण आर्यावर्त के विद्वान, बुद्धिमान ऋषि मुनि महाराज राम, महारानी सीता और उनकी भावी संतति को आशीर्वाद देने अयोध्या पधारते हैं। उनका स्वागत अभिनंदन करके राम जी कहते हैं- भगवन तीनो लोक में ज्ञान का दान सबसे उत्तम माना गया है। हम याचक हैं, अल्प बुद्धि हैं आप त्रिकाल दर्शी हैं। हमें जिस योग्य समझें वही शिक्षा प्रदान करने की कृपा करें।

सर्वोच्च शिक्षित परम ज्ञानवान और चक्रवर्ती सम्राट होकर भी अपने देश के विद्वानों से राम ने पूरी विनम्रता से उनके अनुभव और सुझाव मांगे। यही है राम का आदर्श व्यवहार और यही है अनुकरण करने योग्य सीख।

सत्संग का यह प्रसंग कल्याण के इच्छुक हर इंसान को देखना सुनना और समझना चाहिए।
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एक नारी जो रात में न्याय मांगने आई थी परंतु बिना न्याय पाए वापस चली गई उसी संबंध में प्रजा का विचार जानने समझने के लिए राम जी स्वयं भेष बदलकर गांवों और नगरों में घूमते हैं जहां उन्हें सीता जी के प्रति प्रजा की दुर्भावना और सद्भावना दोनों का पता चलता है।

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Gepostet von Arun Govil am Samstag, 13. Juni 2020

जिसे सुनकर रामजी बड़ी ही दुविधा और अंतर्द्वंद से घिर जाते हैं और निदान की आशा से गुरु वशिष्ठ के आश्रम जाकर उनसे निवेदन करते हैं- गुरुदेव हमारा मन बहुत विचलित है, एक अशांति ने घेर लिया है हमारे मन को। गुरु चरणों की छाया में शांति मिलेगी इसी अपेक्षा से हम आप की शरण में आए हैं।

वशिष्ठ जी बोले- ‘राजा का मन तो एक चट्टान की भांति अटल और अचल होना चाहिए। राजा के निर्णय पर धरती के लाखों प्राणियों का सुख-दुख निर्भर होता है। मनके विचलित होने का एक ही कारण होता है मोह। कुछ प्रिय वस्तु खो जाने के भय से ही मन विचलित होता है।

इसीलिए राजा को किसी से भी मोह नहीं रखना चाहिए तभी तो वह अपने कर्तव्य और न्याय के पथ पर दृढ़ रह सकता है। यही धर्म है और धर्म का निर्णय यह देखकर नहीं किया जा सकता कि किसको कितना और क्या त्यागना पड़ रहा है। धर्म सबके लिए एक ही होता है राजा हो या प्रजा छोटा हो या बड़ा।’

रामायण में वर्णित ये राज धर्म की शिक्षा हर शासक, प्रशासक और अधिकारी को जाननी और समझनी चाहिए।