राजमहल में भी सन्यासी राम

अवधवासियों द्वारा ही लांछित होकर अवध से निकाली गई अवध की महारानी सीता, अवधवासियों के लिए मंगल कामना करके अवध से विमुख होकर वन की ओर चल पड़ी। कुछ ही दूर महर्षि वाल्मीकि प्रतीक्षारत खड़े मिले।

उन्होंने सीता जी को महारानी सीता कहकर संबोधित किया तो सीता जी ने कहा- ‘मैं महारानी नहीं हूं मुझे तो आप पुत्री के रूप में स्वीकार कर लीजिए महर्षि।’

महारानी की पदवी और सीता नाम तक का परित्याग करके वे महर्षि वाल्मीकि के आश्रम जाती हैं साथ ही महर्षि वाल्मीकि से यह भी वचन ले लेती हैं कि – ‘मेरी होने वाली संतान न रघुवंश के बारे में कुछ जाने और न मेरे बारे में। जिससे वो पिता के नाम का सहारा लिए बिना आत्मनिर्भरता सीख सके। अपने पुरुषार्थ से अगर संतान महानता प्राप्त करे तो ऐसी उपलब्धि पर माता-पिता को भी गर्व होता है।’

ये है एक चरित्रवान आदर्श नारी का आत्मविश्वास जिसे अपने बच्चों को आत्मनिर्भर और सर्व समर्थ बनाने के लिए किसी अन्य के सहारे की आवश्यकता नहीं है।
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Jai Shriram 🙏

Gepostet von Arun Govil am Freitag, 12. Juni 2020

समय की गति एक बार फिर सीता को राजमहल से वन में ले आई। सपने की तरह जीवन में आया राज सुख पलक झपकते ही ओझल हो गयाय़ फिर वही धरती पर कुश और घास का बिछौना और वही वन का जीवन। परंतु सीता ने इसे अपना धर्म और कर्तव्य मानकर सहज स्वीकार किया और वह महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में वनदेवी बनकर रहने लगीं।
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राम राजमहल में रहकर भी कुश और घास के बिछौने पर वनवासी की भांति रहने लगे।

लक्ष्मण जी ने उनके इस निर्णय पर दुख जताया तो रामजी ने कहा- सीता भी तो इसी प्रकार घास के बिछौने पर सोएगी। मेरा निजी जीवन भी उसी के समान होना चाहिए। पति का धर्म है जो निजी सुख वह अपनी पत्नी के साथ नहीं बांट सकता उसका उपभोग वो ना करे।

पति के रूप में राम का यह आदर्श व्यवहार आज भी वैवाहिक और पारिवारिक जीवन के लिए कितना उपयोगी है ये कहने की आवश्यकता नहीं है।
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अयोध्या में अचानक जनक जी का आगमन होता है। राम जी स्वयं को उनकी पुत्री का अपराधी मानकर उनसे क्षमा याचना करते हैं। जनक जी राजमहल में भी राम का वनवासी जीवन देखकर बहुत दुखी होते हैं और उन्हें सांत्वना देते हुए कहते हैं- ‘एक राजा राजमहल में होकर भी साधु हो गया है।’

अपने लिए उनकी इस सांत्वना पर राम जी सीता जी के लिए व्यथित हो जाते हैं और कहते हैं- राजमहल की महारानी होकर जो निस्सहाय अवस्था में वनों में मारी मारी फिर रही है उसका क्या?

जनक जी बड़े आत्मविश्वास के साथ कहते हैं- ‘राम ! मेरी पुत्री निस्सहाय नहीं है। उसका सहायक है उसका धर्म और जिस स्त्री की रक्षा उसका धर्म करता है वो कभी निस्सहाय और निर्बल नहीं रह सकती।’ धन्य हैं ऐसे पिता और धन्य है ऐसी पुत्री।

सीता पर कैसे-कैसे दुख आए, घर छोड़ना पड़ा, पति छोड़ना पड़ा, रहने के लिए वन जाना पड़ा फिर भी अपने पिता से किसी तरह की सहायता नहीं मांगी। पिता भी महाराजा होकर, सर्व समर्थ होकर भी तटस्थ रहे,पति पत्नी के निर्णय में कोई हस्तक्षेप नहीं किया।

ये है रामायण में रिश्तों की मर्यादा। ये मर्यादा और ये व्यवहार पारिवारिक रिश्तों के लिए आज सबसे ज्यादा जरूरी हैं।