मिट्टी का क़र्ज़ चुकाते हमारे जवान..माएं हंसकर कर देती हैं अपने लाल देश पे कुर्बान

आज 15 अगस्त है. वो दिन जब हमें आज़ादी मिली, आज़ादी उन विचारों से जो हम पर थोपे गए. आज़ादी उन जंजीरों से जिनके होते हुए हम कभी चैन की सांस नहीं ले पाते. आज़ादी उस गुलामी से जो कई सालों और सदियों तक इस देश के लोगों ने सहन की थी. पर ये बहुत मुश्किल था. कई जिंदगियां इसके लिए ख़तम हो गईं. दिन रात, सुबह शाम, सोते जागते, कई सालों का संघर्ष था. हमारे देश के महान स्वतंत्रता सेनानी, जो चले गए, अब नहीं आयेंगे, पर हमेशा रहेंगे, जब तक दुनिया है, उसके बाद भी, यहीं कहीं हमारे आस पास. वो जिंदगियां जो मिट जाती हैं, इस वतन के लिए. पर उनके नाम कभी नहीं मिटते, क्योंकि वो लिखे जाते हैं इस देश के माथे पर, और वो सदा सदा के लिए अमर हो जाते हैं.

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और यही कर रहे हैं हमारे सेना के जवान. आज़ादी के बाद से लेकर अब तक अलग अलग युद्धों में कितने जवान अपनी जान दे चुके हैं. पर वो हमें भरोसा देते हैं. हमारी सुरक्षा का भरोसा. और देश की सीमाओं पर सबसे आगे सीना तानकर खड़े होते हैं. भारत देश की सीमाओं पर दुश्मनों की फ़ौज खड़ी है, लेकिन किसी की मजाल है जो आँख उठाकर भी देख ले. ये हिम्मत है हमारे जवानों की. वो भी हर रोज़ हमारे लिए कुर्बान हो रहे हैं. पर उन्हें भी तो हमसे उम्मीदें हैं, कि हम उनकी इतनी महान कुर्बानी को सम्मान दें. क्योंकि अगर वो आगे नहीं होंगे, तो हम और हमारे अपने कभी सुरक्षित नहीं होंगे. हमारे ऊपर हमारी मिट्टी का क़र्ज़ होता है. उसका सम्मान सबसे ऊपर है, जैसे गुरु का दर्ज़ा भगवान से भी ऊपर होता है, ऐसे ही मातृभूमि का दर्ज़ा माँ से भी ऊपर है, माएं भी इस बात को जानती हैं, इसलिए हँसते हँसते अपने प्यारों को देश पे कुर्बान होने के लिए भेज देती हैं, जो सैनिक देश के लिए कुर्बान होते हैं, उसमें मातृभूमि की रक्षा के साथ हमारी भी सुरक्षा होती है. जो हमारे वतन की बाहरी सीमाओं के प्रहरी हैं, वही देश के भीतर भी हर हाल में हमारी सुरक्षा का भरोसा देते हैं, लेकिन हम खुद ही इसकी शांति भंग करते हैं, देश में कई बार छोटी छोटी बातों पर झगड़े होते हैं, माहौल खराब होता है, आगजनी होती है, और हम अपनी मातृभूमि का क़र्ज़ चुकाने के बजाय उसे रुलाते हैं. कुर्बानी के जिस क़र्ज़ को हम कभी नहीं चुका सकते, उसे अपमानित करते हैं. बहुत एहसान फरामोश हो चुके हैं हम. वो जो हमारे लिए अपनी जान देकर चले गए, कितना दुख होगा उन्हें, और हम शर्मिंदा भी नहीं होते.

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हमें अपनी इस विकृत सोच को बदलना होगा. सिर्फ 15 अगस्त के एक दिन हम साल भर में आज़ादी का जश्न मना लेते हैं, और फिर भूल जाते हैं सब कुछ, उन एहसानों को, उस क़र्ज़ को, उस फ़र्ज़ को, जो हम सबका है. अगर हम ऐसा ही कर रहे हैं, तो हमें सोचना होगा, क्या हम जिंदा हैं?

15 अगस्त बार बार आएगा, हर साल आएगा, लेकिन मिट्टी क़र्ज़ चुकाने की ज़िम्मेदारी हम सबकी है.