कहते हैं, धरती पर आकर इंसान अपने कर्मों का एक छोटा सा पौधा लगाता है, समय के साथ साथ ये पेड़ बनकर बड़ा हो जाता है। ये पौधा या तो अच्छे कर्मों से सींचा जाता है, या दुष्कर्मों से, और इसका फल हमें इसी जीवन में भोगना होता है। जब भी हम कोई गलत काम कर रहे होते हैं, हमारे भीतर कुछ ऐसा होता है, जो एक बार हमें जरूर टोकता है। जब तमो गुण हावी होते हैं, पाप प्रिय लगने लगता है, आचरण में पशुता उतरती है तो भीतर भी हलचल होती है।
हमारे अंत:करण में आग्रह का एक भाव जागता है कि रुक जाओ, गलत काम न करो। कुछ लहरें चलती हैं जिसमें दया, सेवा, दान, ज्ञान, त्याग, उदारता और विवेक एक बार शरीर के रग-रग में बहता जरूर है। गलत काम के ठीक पहले यदि हम इन्हें महसूस करें तो निश्चित ही हम अपने आप को रोक लेंगे। कबीरदासजी ने कहा है कि ईश्वर हमसे चौबीस अंगुल दूरी पर है।
कबीर बात पते की कहते थे, लेकिन तरीका तिरछा ही रहता था। यदि सचमुच परमात्मा इतने निकट हैं तो हर किसी को मिल जाएगा। लेकिन कबीर जिस भाव से कह रहे हैं, उसे समझा जाए। आत्मा का स्थान हृदय होता है और मन का स्थान मस्तिष्क। हृदय से मस्तिष्क की दूरी चौबीस अंगुल है। आत्मा का ही अगला रूप परमात्मा है। बुरे विचार या गलत काम का केंद्र मन होता है। जैसे ही यह सक्रिय हुआ, वैसे ही हृदय हमें अवसर देता है कि रुक सकें तो रुक जाएं।
हृदय से आवाज भी आती है सत्य पर टिको, ये दुष्कर्म अस्थायी हैं। यदि हम हृदय की भाषा सुनने से चूक जाएं तो मन वहां ले जाकर पटकता है, जिसे गलत दुनिया कहते हैं। इसलिए भीतर की सत्ता से जुड़े रहें तो बाहर की सत्ताएं हमसे गलत काम नहीं करवाएंगी। गलत में एक आकर्षण होता है और सही में सहज आमंत्रण। हृदय पुकारता है और मन खींचता है।