जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी

भगवान राम जब वन जाने लगे तो साम्राज्य की सारी प्रजा उनके पक्ष में थी। प्रजा यही चाहती थी कि राजमत कुछ भी हो परंतु जनमत राम के साथ है और राम ही राजा बनें परंतु रामजी ने सबको धर्म और मर्यादा के तर्क देकर शांत किया और वन के लिए चले गए।।

यही बात अगर आज के संदर्भ में देखी जाए तो सत्ता पाने के लिए जरा सा भी सामर्थ्यवान व्यक्ति मात्र कुछ समर्थकों के दम पर तख्तापलट तक कर देते हैं। परंतु राम ने अपने पक्ष में हो रहे जनमत का समर्थन ना कर, राज मत और पिता की आज्ञा का पालन किया और वन को चले गए।

एक और बहुत ही ग्रहण करने योग्य बात है कि जब काफी प्रजा हठ करके उनके साथ गई तो तमसा नदी के किनारे पहली रात में सब के सो जाने पर राम जी चुपचाप वहां से जाने लगते हैं और जाने से पहले सोती हुई प्रजा को तरफ दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं।

ये है राम की प्रजा वत्सलता ,
ये है राम का मानव प्रेम।

जय श्रीराम🙏

Gepostet von Arun Govil am Sonntag, 17. Mai 2020

 

अपनी जन्मभूमि और कौशल प्रदेश की राज्य सीमा पार करने से पहले रामजी रथ से उतरकर सीता लक्ष्मण सहित जननी समान अपनी जन्मभूमि को सादर प्रणाम करते हैं और कहते हैं ‘राम आज तेरे आंचल की छाया से दूर जा रहा है माँ परंतु जहां रहूंगा मेरा हृदय तेरी पावन मिट्टी से लिपटा रहेगा।’

अपनी जन्म भूमि की थोड़ी सी मिट्टी साथ ले जाते हैं यह सोचकर कि रोज इस से तिलक करेंगे और रोज अपनी मातृ भूमि को याद करके उसकी वंदना करेंगे।
ये है राम का स्वदेश प्रेम मातृभूमि प्रेम।

श्रृंगवेरपुर में अपने गुरुकुल विद्यालय के सहपाठी निषादराज से मिलना। निषाद राज का उन्हें राजा राम मेरे सरकार कहकर चरण छूने का प्रयास करना और राम जी का चरण न छूने देकर निषादराज को हृदय लगा कर यह कहना कि ‘सरकार नहीं सखा कहो मित्र’ ये है राम की मित्रता।

बचपन में साथ पढ़े हुए केवट निषाद को आज चक्रवर्ती साम्राज्य का युवराज होने पर भी उतनी ही आत्मीयता से अपना सखा मानना। केवट का प्रसंग भक्त और भगवान के बीच का एक रहस्यमय प्रसंग है।

सीता जी गंगा मैया का पूजन करती हैं और वनवास के दौरान अपने पति श्री राम और देवर लक्ष्मण सहित सब की मंगल कामना करके वापस आते हुए फिर से गंगा मैया के पूजन का वचन देती हैं और गंगा मैया से आशीर्वाद मांगती हैं। यह है सीता जी का धार्मिक संस्कार और गंगा मैया की महिमा जो त्रेता युग से अनवरत चली आ रही है।

आज गंगा उपेक्षित हैं तो उसका परिणाम सारा संसार भुगत भी रहा है। गंगा पार करके तीर्थराज प्रयाग पहुंचने पर राम जी सीता लक्ष्मण और निषाद सहित भारद्वाज मुनि के आश्रम में जाते हैं परंतु आश्रम में प्रवेश करने से पहले निषादराज से कहते हैं – ‘अस्त्र शस्त्र धारण करके मुनि आश्रम में प्रवेश करना मर्यादा के विरुद्ध है’ और ऐसा कह कर सारे अस्त्र-शस्त्र आश्रम के द्वार पर रखकर फिर आश्रम में प्रवेश करते हैं। ये है राम का संस्कार कि जब वो किसी संत महात्मा से मिलने जा रहे हैं तो बिल्कुल संत की भांति ही उनसे मिल रहे हैं।

आश्रम में प्रवेश करने पर शुद्ध जल से राम लक्ष्मण सीता और निषादराज पहले अपने हाथ पैर धोते हैं फिर भरद्वाज मुनि के पास बैठते हैं। स्वच्छता की यह परंपरा हमारे यहां युगों युगों से चली आ रही है अगर हमने इन परंपराओं को यथावत संभाला होता तो आज की जो महामारी इतने भयंकर रूप में सारे संसार पर हावी हुई है शायद उससे बचा जा सकता था।

मुनिवर के सामने बैठते समय निषादराज नीचे बैठ जाते हैं तो भरद्वाज मुनि उन्हें राम का सखा होने के नाते राम जी के बराबर आसन देकर बिठाते हैं और राम जी भी उसका समर्थन करते हैं।

यहां निषादराज को राम जी के बराबर और भरद्वाज मुनि के बराबर बैठने में संकोच होता है और वो कहते हैं कि मैं तो एक नीची जाति का हूं आप सब के बराबर कैसे बैठूं तब भरद्वाज जी कहते हैं कि जिनको राम जी ने अपना सखा बना लिया वह नीच कैसे हो सकते हैं। और राम ने तो कभी किसी में कोई भेदभाव किया ही नहीं। ऊंच-नीच, जाति पांति, छोटा बड़ा, धनी निर्धन इंसान को राम ने मात्र इंसान माना कभी किसी से कोई भेद नहीं किया।