सावन का महीना भगवान भोलेनाथ की भक्ति का महीना होता है. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, भगवान भोलेनाथ पूरे श्रावण मास में अपनी ससुराल राजा दक्ष की नगरी कनखल, हरिद्वार में निवास करते हैं। और भगवान विष्णु के विश्राम का समय होता है, जो देवशयनी एकादशी से शुरू हो जाता है, उसके बाद समस्त सृष्टि की देखभाल भगवान शिव ही करते हैं. श्रावन के महीने में भोलेनाथ को जलाभिषेक करने की परम्परा है. जो कांवड़ यात्रा के माध्यम से गंगाजी से लाया जाता है. और भक्तगण इसे लेने के लिए हरिद्वार तक आते हैं. लेकिन कांवड़ यात्रा की शुरुआत कब और कैसे हुई इसके बारे में कई मान्यताएं हैं.
धार्मिक मान्यता के अनुसार, सबसे पहले विष्णु के अवतार कहे जाने वाले भगवान परशुराम ने कांवड़ यात्रा शुरू की थी. कहते हैं हैं उन्होंने उत्तरप्रदेश के बागपत के पास स्थित ‘पुरा महादेव’ का जलाभिषेक किया था. भगवान परशुराम इसके लिए गढ़मुक्तेश्वर से गंगाजल लेकर आये थे, और उन्होंने इस प्राचीन शिवलिंग का जलाभिषेक किया. आज भी भक्त इस परंपरा को निभा रहे हैं, और हर वर्ष सावन में गढ़मुक्तेश्वर से जल लाकर ‘पुरा महादेव’ का जलाभिषेक करते हैं. गढ़मुक्तेश्वर का नाम अब ब्रजघाट है.
और कुछ मान्यताओं के अनुसार, कांवड़ यात्रा की शुरुआत भगवान राम ने की थी भगवान राम ने बिहार के सुल्तानगंज, बिहार से गंगाजल लाकर झारखंड के देवघर स्थित वैधनाथधाम में भोलेनाथ के ज्योतिर्लिंग का जलाभिषेक किया था।
और ये भी कहा जाता है कि, सबसे पहले त्रेतायुग में श्रवण कुमार ने पहली कांवड़ यात्रा की थी. उनके माता पिता ने जब उनसे तीर्थ यात्रा के लिए कहा, तो उन्होंने हिमाचलप्रदेश स्थित ऊना से इस यात्रा की शुरुआत की और हरिद्वार तक आये, और उन्हें गंगा स्नान कराया, और वापस जाते समय वो अपने साथ गंगाजल भी ले गए, और यहीं से कांवड़ यात्रा का प्रारम्भ माना जाता है.
ये मान्यता भी है कि, समुद्र मंथन के दौरान जब भगवान शिव ने विषपान किया तो उसके असर को कम करने हेतु उन्होंने चंद्रदेव को अपने मस्तक पर धारण कर लिया, क्योंकि चन्द्रमा में बहुत शीतलता होती है. इसके बाद समस्त देवों ने मिलकर शिवजी पर गंगाजल चढ़ाया, और तभी से सावन के माह में कांवड़ यात्रा की शुरुआत हुई.