कर्ण का बलिदान भी दुर्योधन के लिए हो गया व्यर्थ

महाभारत का युद्ध कई दिनों तक चला था, शुरू में तो कौरवों का पक्ष बहुत भारी रहा, बड़े बड़े योद्धाओं और कौरवों की विशाल सेना के सामने पांडव बहुत कम थे, और उनके भी एक एक करके कई शूरवीरों ने रणभूमि में अपनी जान गंवाई, लेकिन उसके बाद पांडवों का पलड़ा भारी हो गया. खासकर भीष्म पितामह और गुरु द्रोण के पश्चात तो उनके पास कोई योद्धा ही नहीं बचा. हाँ एक ऐसा वीर ज़रूर था, जो चाहता तो युद्ध का रुख बदल सकता था.

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सूर्यपुत्र कर्ण एक ऐसे महारथी थे, जिसपर दुर्योधन के साथ समस्त कौरव सेना आँख मूंदकर भरोसा करती थी, और कर्ण ने भी बखूबी दुर्योधन के भरोसे का मान रखा, और हर जगह पांडवों की सेना के सामने पहाड़ बनकर खड़े हो गए. फिर जब एक एक करके सब योद्धा धराशायी होते गए, तो दुर्योधन ने कर्ण को ही अपना सेनापति बनाया, और पांडवों का अंत करने के लिए कहा. लेकिन उससे पहले कुंती माता ने कर्ण से मिलकर अपने पुत्रों का जीवन दान माँगा, हालाँकि कर्ण भी माता कुंती के ही पुत्र थे, लेकिन दुर्योधन से अपने वचन के कारण बंधे हुए थे, और उन्होंने कह दिया, अगर आप मुझे भी अपना पुत्र मानती हैं तो, आपके पांच पुत्र जीवित रहेंगे, युधिष्ठिर, भीम, नकुल और सहदेव तो रहेंगे ही, लेकिन अर्जुन की जगह या मैं रहूँगा, या मेरी जगह अर्जुन. माता कुंती दोनों को ही नहीं खोना चाहती थीं, पर युद्ध नीतियों के आगे वो भी विवश थीं.

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अगले दिन जब युद्ध का बिगुल बजा तो श्रीकृष्ण ने युद्ध भूमि में कर्ण को अधर्म की उन नीतियों का भान कराया, जो वो, कौरवों के साथ मिलकर हमेशा करते रहे, और अंत में कर्ण समझ गए कि, उन्होंने जीवन भर सिर्फ अधर्म का साथ दिया, और जब उनके रथ का पहिया रणभूमि में धंस गया, तो उसे निकालने के बहाने एक तरह से उन्होंने युद्ध भूमि में समर्पण कर दिया, और अर्जुन ने उनका वध कर दिया.
कर्ण का यही समर्पण दुर्योधन को रास नहीं आया, और उसने जीवन भर की वफादारी को दो क्षण में भुलाकर कर्ण को धोखेबाज़ कह दिया, और उन्हें अपनी पराजय का ज़िम्मेदार भी ठहरा दिया, और अंत में इस सबसे बड़े युद्ध में धर्म की ही जीत हुई.