कर्म श्रेष्ठ है या ज्ञान…जो समझ गया बन सकता है महान

गीता में कहा गया है कि कर्म करो फल की इच्छा मत रखो.. पर इस आधुनिक दुनिया में हर कोई फल की इच्छा रखता है कर्म की नहीं सोचता. अब आप ही बताईये कि काम नहीं करेंगे तो अच्छे फल या परिणाम कैसे प्राप्त होंगे. हमारे कहने का तात्पर्य है कि आप जो भी कार्य कर रहे हैं उसका फल ज़रूर मिलेगा. बस बात इस पर निर्भर करेगी कि आप किस कार्य को कितनी ईमानदारी से कर रहे हैं क्योंकि कर्ता तो आप ही हैं.

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हमारे इरादे, इच्छाएं व भावनाएं सब का संबंध कर्म से है. संस्कृत भाषा में ‘कर्म’ का अर्थ है ‘कार्य’ या ‘क्रिया’. वे सारी क्रियाएँ जो न सिर्फ हम शरीर द्वारा करते हैं लेकिन अपने मन और वाणी द्वारा भी करते हैं, उसे कर्म कहा जाता है.

सबसे पहले तो हमें खुद की सोच पर विचार करना होगा. अगर अच्छे विचार आएंगे तो मुश्किल से मुश्किल काम भी आसान लगने लगेंगे. अर्थात, सकारात्मक विचार से सकारात्मक काम होंगे. आप आज जो भी हैं वे अपने भूतकाल में किए गए कार्यों की वजह से हैं और आज आप जो भी कर रहे हैं उसी के आधार पर भविष्य तय होगा.

किसी भी कार्य का परिणाम अच्छा तब ही हो सकता है जब आपके विचार अच्छे होंगे. अगर आप की सोच ही अच्छी नहीं होगी तो आपके कर्म भी अच्छे नहीं होंगे. अर्थात आप अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते.

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गीता के एक प्रसंग में श्री कृष्ण ने जब अर्जुन से कहा कि ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’। तब अर्जुन ने श्री कृष्ण से सवाल पूछा कि मुझे समझने में दिक्कत हो रही है कि कर्म श्रेष्ठ है कि ज्ञान. तब श्री कृष्ण ने कहा कि “लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ, ज्ञानयोगेन साड्.ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।’’ इस श्लोक के जरिए श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि ज्ञान और कर्म का रिश्ता बेजोड़ है, दोनों के बिना कामयाबी नहीं मिलती. अर्थात कर्म के बिना ज्ञान काग़ज़ पर उतारा हुआ बेजान शब्द के समान है. इस पंक्ति को एक उदाहरण के जरिए इस तरह भी समझ सकते हैं- आप खाना बनाना जानते हैं और खाने की सारी सामग्री भी सामने रखी है. पर जब तक बनाएंगे नहीं खाएंगे कैसे?

तो कर्म और ज्ञान दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं.