पौराणिक व्यक्तित्व (हमारे पूर्वज) नचिकेता: बाल ब्रह्मज्ञानी

वैदिक साहित्य अथाह है और इसी अथाह साहित्य सागर का एक अंश है कृष्ण यजुर्वेद। कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा के अंतर्गत जो प्रसंग आते हैं उनको कठोपनिषद् नाम दिया गया है। इस उपनिषद में नचिकेता और यमराज का संवाद है जिसमें परमात्मा के रहस्यमय तत्व का बहुत ही उपयोगी और विस्तृत वर्णन है।

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भारतवर्ष के गौरवशाली इतिहास का यह प्रसंग तब का है जब भारतवर्ष का पूरा आकाश यज्ञ के सुगंधित धुएं से भरा हुआ रहता था चारों तरफ ऋषियों, महर्षियों द्वारा गाए हुए वेद मंत्रों की दिव्य ध्वनियां सभी दिशाओं में गूंजती रहती थी।

उसी कालखंड में गौतम वंश में वाजश्रव नाम के एक महातपस्वी ऋषि हुए जिनके पौत्र थे ऋषि उद्दालक। एक बार उद्दालक ऋषि ने सकाम भावना अर्थात् फल पाने की इच्छा से विश्वजित नामक एक महान यज्ञ किया। यज्ञ के नियमानुसार इस यज्ञ में अपना सब कुछ दान करना पड़ता है। उस समय गोधन ही विश्व का सबसे प्रधान धन था अतः उद्दालक अपना समस्त गोधन दान करने लगे।
उद्दालक के एक पुत्र थे जिनका नाम था नचिकेता। उस समय वे थे तो बालक परंतु उनका अंतःकरण बहुत ही सात्विक था। दान में दी जा रही गायों को देखकर उन्होंने सोचा कि – ‘बिल्कुल बूढ़ी हो चुकी असहाय गायें दान करके पिता जी कौन सा पुण्य कमाएंगे। इन गउओं को तो जहां हैं वहीं रख कर इनकी सेवा करनी चाहिए। दान सदैव उपयोगी वस्तुओं का ही देना चाहिए अन्यथा पुण्य के बजाय दानकर्ता को पाप का भागी बनना पड़ता है।’

अपने पिता को इस अनिष्ट से बचाने के लिए बालक नचिकेता ने मन में एक संकल्प कर लिया और जाकर पिताजी से कहने लगे – ‘पिताजी मुझे किसको देंगे ? मैं भी तो आपका सबसे प्रिय धन हूं।’

पिता ने बालक की बातों को कई बार अनसुना किया परंतु नचिकेता बार-बार यही प्रश्न करते रहे। जिससे उनके पिता को क्रोध आ गया और उन्होंने आवेश में आकर कह दिया — ‘जा तुझे यम को देता हूं’

यह सुनकर नचिकेता मन में विचार करने लगे कि ‘शास्त्रों ने शिष्य और पुत्र की तीन श्रेणियां बताई हैं – उत्तम, मध्यम और अधम। जो अपने पिता या गुरु का मनोरथ समझ कर उनकी आज्ञा की प्रतीक्षा किए बिना ही उनकी रूचि के अनुसार कार्य करने लगते हैं वे उत्तम हैं, जो आज्ञा देने पर कार्य करते हैं वे मध्यम हैं और जो मनोरथ जान लेने और स्पष्ट आज्ञा सुन लेने पर भी कार्य नहीं करते वे अधम हैं।

यह सोचकर नचिकेता ने यमराज के यहां जाने का निश्चय कर लिया। यद्यपि उनके पिता उद्दालक को क्रोध शांत होने पर बहुत पश्चाताप हुआ परंतु धर्म, नीति और कर्तव्य का उदाहरण देकर नचिकेता पिता की आज्ञा लेकर यमराज के घर पहुंच गए।

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संयोग से उसी समय यमराज अपने धाम से बाहर थे और उनकी प्रतीक्षा में नचिकेता यमपुरी के द्वार पर 3 दिन तक बिना अन्न जल ग्रहण किए प्रतीक्षा करते रहे। वापस आने पर यमराज ने नचिकेता का बहुत सत्कार किया और 3 दिनों के व्रत के फलस्वरूप तीन वरदान देने का आश्वासन दिया।

नचिकेता ने यमराज से पहला वर पिता के लिए मांगा कि मेरे पिता उद्दालक जो क्रोध में आकर मुझे आपके पास भेज कर अब अशांत और दुखी हो रहे हैं वे मेरे प्रति क्रोध त्याग दें, शांत, संतुष्ट हो जाएं और जब मैं वापस जाऊं तो मुझे प्रेम से स्वीकार करें।

दूसरा प्रश्न करने से पहले नचिकेता ने स्वर्ग की बहुत सी विशेषताओं का वर्णन करके वहां तक पहुंचने का अधिकारी बनाने वाली अग्नि विद्या का ज्ञान मांगा। साथ ही बड़ी स्पष्टता से यह भी कह दिया कि स्वर्ग बहुत ही थोड़े समय के लिए है और पुण्य समाप्त होने पर स्वर्ग भी छोड़ना पड़ता है इसलिए आत्मा की वास्तविक गति और कल्याण के लिए ईश्वर के वास्तविक स्वरूप को समझाने का आग्रह किया।

यमराज ने उस अग्नि विद्या में प्रयोग होने वाली अग्नि के लिए कुंड निर्माण के आकार और अग्नि के चयन संबंधी सारी ज्ञान की बातें बता कर नचिकेता से तीसरा वरदान मांगने को कहा तो नचिकेता ने तीसरे वरदान में आत्मा की गति को बताने का निवेदन किया और यह पूछा कि मृत्यु के बाद आत्मा रहता है या नहीं? यदि रहता है तो कहां जाता है?

नचिकेता के उत्तर में यमराज, आत्मा की गति, धर्म अधर्म, अविद्या, विद्या, जीवात्मा और परमात्मा का स्वरूप आदि विस्तार से समझाते हैं और नचिकेता यमराज से पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके पुनः पृथ्वी लोक पर अपने पिता के पास आ जाते हैं।

नचिकेता ने जितने भी विषय पूछे हैं इन्हीं विषयों का उल्लेख छह प्रमुख शास्त्रों और उपनिषदों में किया गया है अतः इनको किसी लेख में समेट पाना असंभव है। इनका उत्तर ईशादि नौ उपनिषदों के संग्रह में कठोपनिषद में है हमें उसका अध्ययन करना चाहिए।

इति कृतम–