अंहकार से न करें दोस्ती नहीं तो…

“अहंकार में तीनों गए धन, वैभव और वंश,
ना मानो तो देख लो रावण, कौरव, कंस”
ये पंक्तियाँ तो आपने भी सुनी होंगी, जिसका सीधा मतलब यही है, कि घमंड विनाश की जड़ होता है.

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धन, बल और जाति यह सब दिखावा होता है. जो नि:स्वार्थ होकर ईश्वर की जो पूजा करता है उसे भले ही देर से फल की प्राप्ति होती है पर होता ज़रूर है. और सद्भावना से दान करने पर कष्टों का निवारण होता है.

किसी भी चीज़ या वस्तु पर अंहकार होना सही बात नहीं. अंहकार का मन में आने का मतलब है कि जीवन का नाश होना या कहें ‘विनाश काले विपरीत बुद्धि’. इसका मतलब यह है कि जब कभी कोई अपने अंत की ओर अग्रसर होता है या किसी के प्रति घमंड हो जाता है तो उसकी समझ में कुछ नहीं आता और सही-गलत में फर्क करना भूल जाता है. अब आप रावण को ही देख लीजिए, रावण बहुत बड़ा विद्वान पंडित था, लेकिन अपने अहंकार की वजह उसका हश्र हुआ यह आप बहुत ही अच्छे से जानते हैं.

इस आर्टिकल में हम किसी विषय पर आपका ध्यान दिलाने की कोशिश कर रहे हैं. चलिए अब आपको एक छोटी कहानी के ज़रिए बताने का प्रयास करते हैं.

प्राचीन काल में एक बहुत ही दयालु राजा हुआ करते थे वे अपनी प्रजा व सभी लोगों कि मदद किया करते थे और जो भी उनके पास आता वह खाली हाथ न लौटता था. पर एक दिन उनके यहां कुछ साधु संत आए तब राजा ने संतों का बड़ी विनम्रता से आदर सत्कार किया. यहां तक कि राजा ने खुद ही संतों को अपने हाथों से भोजन परोसा. राजा के इस व्यवहार से संत बहुत खुश हुए. संतों को खुश देखकर राजा भी खुश हुए और फिर राजा ने संतों से कहा, “गुरूदेव आप मुझसे जो चाहे मांग लें, मैं आपकी इच्छा अवश्य ही पूरा करूगां. अर्थात, मैं आपकी हर बात पूरी करूंगा”.

राजा के इस आचरण से संतों को यह अनुमान हो गया कि राजा के पास अधिक धन होने की वजह से राजा अहंकार की गिरफ्त में आ गए हैं. राजा की बात का जवाब संतों ने इस प्रकार दिया ” मैं तो वैरागी हूं, हमें किसी भी चीज़ की ज़रूत नहीं है. अगर आप कुछ देना ही चाहते हैं तो आप अपनी इच्छा अनुसार कुछ भी दे सकते हैं.

यह सुन राजा आश्चर्यचकित हो गए और कुछ देर सोच विचार करने के बाद वे संतों से कहने लगे कि मैं आपको एक गांव दान के रूप में देना चाहता हूं. राजा की बात सुनकर संत बोलें, “नहीं महाराज, गांव तो वहां रहने वाले लोगों का है. और आप गांव के रक्षक हैं.”

फिर राजा ने संतों से महल दान में स्वीकार करने के लिए कहा। इस बार भी संतों ने लेने से मना कर दिया और कहा कि महल पर के असली हक आपकी प्रजा का है क्यों कि वे यहां काम करते हैं. ये महल भी उन्हीं की संपत्ति है.

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फिर राजा सोचने लगे और इसबार उन्होंने ने संतों से कहा कि गुरुजी मैं स्वयं को आपकी सेवा में समर्पित करता हूं. मुझे अपना सेवक बना लें. यह सुनकर संत बोले नहीं महाराज आप पर तो आपकी पत्नी, बच्चे और आपकी प्रजा का अधिकार है. मैं आपको अपना सेवक नहीं बना सकता.

यह सुन राजा परेशान हो गए और संतों से पूछने लगे कि अब आप ही बताएं मैं आपको दान में क्या दे सकता हूं?
संत ने कहा कि हे राजन् आप मुझे केवल अपना अहंकार दे दीजिए. क्योंकि, ये एक ऐसी बुराई है, जिसें इंसान का छोड़ना बहुत मुश्किल होता है. अहंकार की वजह से व्यक्ति अपने जीवन में जलते हुए दिये को बुझा देता है अर्थात कई परेशानियों का शिकार हो जाता है.
संतों की बातों को राजा ने सुना और कहा कि मैं आज से अपने अंहकार को त्यागता हूं.