भारतवर्ष के इतिहास में महाभारत का संग्राम एक ऐसा अध्याय था, जिसकी हर घटना कुछ न कुछ सबक ज़रूर देती हैं. हालांकि ये संग्राम धर्म की स्थापना के लिए था, लेकिन फिर भी कौरवों की तरफ से हर बार नियमों को तोड़ा गया, चूंकि कौरवों का स्वभाव ही इस तरह का था, तो उन पर कोई उंगली उठाता, तब भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था, पर पांडवों की तरफ से कुछ भी नियम के विरुद्ध होता, तो उस पर उँगलियाँ अवश्य उठती थीं. ये बात भी काफी हद तक सच है कि, विजय के लिए थोड़ा सा तो नियमों का उल्लंघन करना ही पड़ता है, नहीं तो काफी मुश्किलें हो जातीं.
हालांकि पांडवों में सबसे ज्येष्ठ धर्मराज युधिष्ठिर तो नियमों के साथ ही आगे बढ़ना चाहते थे, पर भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें कुछ बातों के लिए तर्क देकर तैयार किया. एक कहावत भी है कि,साम, दाम, दण्ड, भेद के बिना संग्राम जीतना कठिन होता है, फिर भी अनावश्यक तरीके से पांडवों के कुछ नहीं किया था.
संग्राम के अंतिम पड़ाव पर जब दुर्योधन की माँ गांधारी ने अपने जीवन भर के तप से उसका शरीर वज्र का बना दिया, लेकिन उसके शरीर का मध्य भाग इससे वंचित रह गया था, अन्यथा उसे हरा पाना संसार में किसी के वश की बात नहीं होती, फिर स्वयं नारायण को अपने वास्तविक रूप में आकर उसका अंत करना पड़ता, जो सही नहीं माना जाता, क्योंकि श्रीकृष्ण ने उस युद्ध में नहीं लड़ने की शपथ ली थी.
उसके बाद जब महाबली भीम और दुर्योधन का संग्राम चल रहा था, तो भीम को इस असलियत का पता चला और उन्होंने नियम के विरुद्ध दुर्योधन की जंघा पर वार करके उसे घायल कर दिया. उसी समय भगवान बलराम वहां पहुंचे और क्रोधित होकर भीम पर वार करने ही जा रहे थे, क्योंकि भीम उनके शिष्य भी थे, और उन्हें भीम का इस तरह नियम का उल्लंघन करना अच्छा नहीं लगा, और इस बात के लिए वो भीम को दण्डित करना चाहते थे, पर समय रहते अगर वहां भगवान श्रीकृष्ण आकर उन्हें नहीं रोकते, तो अनर्थ हो जाता. श्रीकृष्ण को भी उन्हें समझाने ने में बहुत समय लगा, तब जाकर उनका क्रोध शांत हुआ.