बौद्ध धर्म की नींव डाल कर संसार के सारे मानव समाज को शांति का उपदेश देने वाले गौतम बुद्ध अपने जीवन के प्रारंभिक काल में एक राजकुमार थे, जिन्होंने सत्य, शांति और परम सुख की खोज में अपना समस्त राजपाट और सांसारिक सुख त्याग दिया।
उपलब्ध जानकारियों के अनुसार गौतम बुद्ध का जन्म आज से 563 ईसवी पूर्व कपिलवस्तु लुंबिनी नेपाल में हुआ था। इनके पिता थे महाराजा शुद्धोधन और माता थीं मायादेवी। इनके जन्म के सात दिनों बाद ही इनकी माता का देहांत हो गया और इनका पालन-पोषण किया इनकी मौसी गौतमी ने। परिवार द्वारा बचपन में नाम मिला सिद्धार्थ जिसका अर्थ होता है सिद्धि प्राप्त करने वाला। गौतम वंश में जन्म लेने के कारण पूरा नाम पड़ा सिद्धार्थ गौतम। सिद्धार्थ का जन्मस्थान उत्तर प्रदेश के नौतनवा से लगभग 25 किलोमीटर पश्चिम में नेपाल में स्थित है।
स्वभाव बचपन से ही बहुत दयालु, परोपकारी और जीव प्रेमी रहा। कहा जाता है कि घुड़दौड़ में कभी-कभी घोड़े के मुंह से झाग आता देखकर वहीं घोड़ा रोक देते थे और दौड़ हार जाते थे। कभी-कभी इसलिए भी हार जाते थे कि दूसरों का हारना या उन्हें दुखी करना सिद्धार्थ को अच्छा नहीं लगता था। अपने चचेरे भाई द्वारा शिकार में घायल एक हंस को उनसे छुड़ाकर उसकी सेवा करके उसे स्वस्थ करना बचपन में उनकी जीवों के प्रति दया को प्रमाणित करता है । अवस्था बढ़ने के साथ-साथ यह भावना और भी परिपक्व होती रही।
वेद शास्त्रों के अध्ययन के साथ ही सिद्धार्थ कुश्ती, घुड़दौड़ और धनुर्विद्या में भी बहुत कुशल थे। युवावस्था आते ही यशोधरा नाम की कन्या से इनका विवाह हो गया। पिता द्वारा भोग विलास की समस्त व्यवस्था कर दी गई परंतु एक दिन एक दुर्बल असहाय वृद्ध देखकर उनका मन करूणा से भर गया, और दूसरे दिन एक सन्यासी को देखकर जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण बदल गया और सिद्धार्थ पत्नी और बच्चे को छोड़कर सत्य की खोज में निकल पड़े।
देशाटन करते हुए कई आश्रमों और गुरुओं के संपर्क में आते रहे फिर गया (बिहार) में निरंजना नदी के तट पर घोर तपस्या में लीन हो गए।
ऐसी मान्यता है कि जहां गौतम बुद्ध तपस्या कर रहे थे वहीं पड़ोस के एक गांव की सुजाता नाम की स्त्री, पुत्र प्राप्ति पर उस अलौकिक वृक्ष को धन्यवाद देने के लिए खीर लेकर वहां आई, और सिद्धार्थ को तपस्या रत देखकर उस स्त्री ने यह कामना की कि जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई है ऐसे ही इस तपस्वी की भी मनोकामना पूरी हो। कहते हैं उसी रात सिद्धार्थ की तपस्या सफल हुई और उन्हें बोध (ज्ञान) प्राप्त हुआ। यहीं से वे ‘सिद्धार्थ गौतम’ से ‘भगवान बुद्ध’ हो गए, जिस वृक्ष के नीचे वे तपस्या कर रहे थे उसे ‘बोधिवृक्ष’ और गया का वह स्थान ‘बोधगया’ कहा जाने लगा।
जीवन का वास्तविक बोध उन्हें 35 वर्ष की अवस्था में प्राप्त हुआ था और तब से लेकर 80 वर्ष की आयु तक वे बोध और शांति का प्रचार करते रहे। अपने ज्ञान प्रचार में उन्होंने संस्कृत भाषा का प्रयोग न करके उस समय की सामान्य बोलचाल की भाषा ‘पाली’ का उपयोग किया।
1 महीने वहीं बोधगया में बोधिवृक्ष के नीचे रहकर धर्म के स्वरूप का चिंतन किया और उसके बाद धर्म का उपदेश देने वहां से देशाटन के लिए चल पड़े।
आषाढ़ महीने की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को वे वाराणसी के पास सारनाथ पहुंचे और वहीं पर उन्होंने अपना सबसे पहला धार्मिक उपदेश दिया। भगवान बुद्ध ने यहीं पर 5 शिष्य बनाए और उन्हें धर्म का प्रचार करने के लिए देश देशांतर में भेज दिया। धर्म की स्थापना और उनके प्रचार प्रसार का उत्तरदायित्व शिष्यों को देकर उन्होंने अपने निर्वाण की घोषणा भी कर दी और आज से लगभग 483 ईसा पूर्व कुशीनगर में उन्होंने शरीर त्याग दिया।
गौतम बुद्ध ने अष्टांग मार्ग का उपदेश दिया साथ ही सनातन धर्म के कुछ नियम धर्म भी मानने का उपदेश दिया जिनमें- अग्निहोत्र, गायत्री मंत्र, ध्यान, धारणा के साथ मध्य मार्ग का अनुसरण आदि सम्मिलित है।
गौतम बुद्ध के पांचों शिष्यों ने बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार पूरी तन्मयता से किया और संसार में बुद्ध के अनुयायियों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ने लगी, बड़े-बड़े राजा महाराजा बौद्ध धर्म के अनुयाई होने लगे।
बुद्धं शरणं गच्छामि
धम्मं शरणं गच्छामि
संघं शरणं गच्छामि
की प्रबल भावना के साथ अशोक जैसे चक्रवर्ती सम्राट ने भी बौद्ध धर्म स्वीकार करके उसका प्रचार प्रसार किया। भारतवर्ष में मौर्य वंश का शासन आने तक बौद्ध धर्म चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया, वर्मा, थाईलैंड, श्रीलंका आदि देशों तक पहुंच चुका था।
गौतम बुद्ध ने ‘सत्य की खोज’ और ‘बहुजन हिताय’ की भावना से जिस धर्म की स्थापना की आज उसकी जड़ें विश्व के विभिन्न देशों में फैली हुई हैं और मानवता को शांति का संदेश दे रही हैं।