क्षमानिधान राम भगवान

रावण के भेजे गुप्तचरों को रामजी ने बड़ी सहजता से क्षमा कर दिया जबकि युद्ध नीति, राजनीति और उनके संपूर्ण सहयोगियों का मत यही था कि गुप्तचर का वध कर देना चाहिए। परंतु रामजी ने कहा अपने राजा की आज्ञा का पालन कर तुमने अपने धर्म का पालन किया है। यदि अभी कुछ शेष रह गया हो तो निर्भय होकर तुम उसका भी अवलोकन कर सकते हो। जाओ अपने राजा को हमारा इतना संदेशा भी सुना देना कि केवल सेना की गिनती से या सेनापतियों के बल की थाह लेने से ही युद्धों का निर्णय और बैरी पर विजय प्राप्त नहीं होती।

धर्म, नीति और सत्य ही यथार्थ शक्ति होती है। जीत सदा सत्य की होती है अन्यथा हर एक शक्तिशाली, हर आतताई अमर हो जाता।

साथ ही राम जी ने यह भी कहा अपने राजा रावण को तपस्वी राम की यह ललकार भी सुना देना कि राम केवल अपनी पत्नी के लिए ही नहीं लड़ रहा। अखिल विश्व के नारी सम्मान की सुरक्षा का आदर्श स्थापित करने के लिए एक धर्म युद्ध कर रहा है,जिससे भविष्य में ऐसी कुत्सित चेष्टा और ऐसा दुराग्रह कोई शक्तिशाली राजा न कर सके।

राम के व्यवहार ने यहां हमें यह सिखाया की जिनसे अपना कोई नुकसान ना हो उन्हें क्षमादान देने में कोई दोष नहीं है भले ही वे शत्रु के गुप्तचर ही क्यों ना हों। साथ ही यह भी सिखाया कि अगर सत्य और धर्म के लिए लड़ा जाए तो भले सामने दुश्मन त्रिलोक विजयी भी हो उससे डरना नहीं चाहिए।
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जय श्रीराम🙏#goodmorning

Gepostet von Arun Govil am Sonntag, 17. Mai 2020

दोनों गुप्तचरों ने राम की सेना का सारा भेद रावण को बताया। रावण, मेघनाद और सभी सेना नायकों के साथ युद्ध नीति को अंतिम रूप देने लगा तो उसके नाना माल्यवान ने फिर उसे समझाने का प्रयास किया परंतु ना रावण ने कुछ सुनी ना मेघनाद ने। दोनों को अपने बल वैभव का असीमित अभिमान था।

धन संपत्ति वैभव चाहे जितना हो जाए पर अनुभवी बुद्धिजीवियों और बुजुर्गों का अपमान करके उनकी सलाह को अनदेखा नहीं करना चाहिए।। उधर लंका में रावण ने नगर के चारों द्वारों पर रणनीति के अनुसार अपने-अपने सेनापति और सेनाएं तैनात कर दिए।

इधर राम जी द्वारा अपने सहयोगियों की सलाह पर चारों द्वारों पर एक साथ आक्रमण करने की योजना को अंतिम रूप दिया गया। रामायण का यह भाग युद्धनीति, कूटनीति और व्यूह रचना के अथाह ज्ञान से भरा हुआ है। इसे गंभीरता से देखना और समझना चाहिए।
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आक्रमण करने से पहले राम जी रावण के पास शांति संदेशा भेजने की बात करते हैं तो लक्ष्मण जी को बहुत क्रोध आता है और वे कहते हैं कि वह महा पापी अब शांति प्रस्ताव या क्षमा के योग्य नहीं है। तो राम जी कहते हैं। लक्ष्मण शास्त्र कहता है सामर्थ्य वानको क्षमा का गुण नहीं त्यागना चाहिए, दया ही वीर की शोभा होती है।
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सर्वसम्मति से युवराज अंगद को शांति दूत बनाकर रावण के दरबार में भेजा जाता है और अंगद एक शेर की भांति रावण दरबार में पहुंच जाते हैं..आसन नहीं मिलता तो अपनी पूंछ का आसन रावण से ऊंचा बना कर बैठ जाते हैं और बहुत प्रकार से रावण को समझाते हुए कहते हैं- ‘जब पाप कर्म अपनी पराकाष्ठा को पहुंच जाते हैं तो दैवीय शक्तियों को पाप का नाश करना ही पड़ता है। प्रतिशोध वीरता की निशानी नहीं होती।
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रावण पर अंगद के समझाने का कोई प्रभाव नहीं पड़ता उल्टा वह अंगद को अपनी तरफ मिलाने का प्रयास करता है।बहुत से लालच देता है भावनाएं भड़काता है पर अंगद अपने विचार पर अटल रहते हैं।