ऋष्यमूक पहुँचे रघुवीरा

परमेश्वर का अवतार होकर भी सामान्य मानव की तरह शबरी के बताए रास्ते पर चलते हुए प्रभु राम, लक्ष्मण जी सहित किष्किंधा के पास पहुंच जाते हैं। यहां हमें एक सीख ये मिलती है कि हम कितने भी ज्ञानी हों, कितने भी बलवान हों, कितने भी सामर्थ्य वान हों लेकिन अनजान जगहों पर वहां के स्थानीय लोगों की सहायता और सलाह से काम करना ज्यादा सुविधाजनक होता है।

सुग्रीव के मन में राम लक्ष्मण के बारे में सुनकर शंका होती है कि कहीं बाली ने हमें मारने के लिए तो इन्हें नहीं भेजा है। फिर भी वे अपने मंत्रियों की सलाह पर पहले इन दोनों अनजान व्यक्तियों (राम लक्ष्मण) की सच्चाई का पता करने के लिए दूत भेजने का निश्चय करते हैं।ये होता है एक सामान्य व्यवहार जो हमें भी अपने आचरण में लाना चाहिए। मात्र शंका होने या किसी के कह देने से ,बिना सच्चाई जाने किसी की कोई छवि मन में नहीं बनानी चाहिए।

हनुमान जी भेद लेने के उद्देश्य से ब्राह्मण वेश बनाकर राम लखन के पास आते हैं। एक दूसरे से सवाल जवाब करते करते लक्ष्मण जी थोड़े से क्रोधित हो जाते हैं तो हनुमान जी कहते हैं–”रोषम् करोति दोषम्” अर्थात क्रोध हमेशा पाप कर आता है इसलिए क्रोध नहीं करना चाहिए। और इसके बाद पूरी तरह संतुष्ट होने पर अपना परिचय देते हैं और मन में ग्लानि भी होती है।

ImageSource

हनुमान जी कहते हैं कि भगवान मैं तो एक वानर ठहरा इसलिए आपको नहीं पहचाना पर आपने भगवान होकर भी मुझ भक्त को क्यों नहीं पहचाना? मुझसे कोई दोष हुआ क्या??

हनुमान जी के इस प्रश्न का उत्तर तो रामजी ने बड़ी सहजता से दिया परंतु इसे बड़ी गंभीरता और सतर्कता से समझना चाहिए। रामजी ने कहा– दोष तुम्हारा नहीं हनुमान, तुम्हारी विद्वता का है।  इतने बड़े-बड़े संस्कृत के मंत्रों से जो तुम पांडित्य का प्रभाव हम पर जमा रहे थे हम तो उसी से डर गए भैया।

कितना गूढ़ संकेत है भगवान का भक्तों के लिए। वेद शास्त्रों के ज्ञान से, स्तुतियों या मंत्रों के गान से, भेट चढ़ावा उपहार या सामान से,भगवान को नहीं पाया जा सकता। भगवान को मात्र स्वाभाविक और सच्चे समर्पण से, निश्छल भक्ति भाव से ही पाया जा सकता है।।

हनुमान जी के प्रायश्चित करने और क्षमा याचना करने पर फिर राम जी बोल पड़े- हनुमान तुम तो मुझे लक्ष्मण और भरत के समान ही प्रिय हो।

राम और सुग्रीव का मिलन दोनों के लिए कल्याणकारी होगा परंतु इस मिलन में सामान्य मानवों के लिए कई विशेष बातें दिखाई देती हैं जो हमें समझनी चाहिए। सुग्रीव अपने पद से हटाए गए एक राजा हैं जो वर्तमान में किसी पद पर नहीं हैं परंतु उनके कुछ मंत्री अभी भी उनके साथ वैसे ही बने हुए हैं।

पहली सीख तो ये कि हमारा स्वामी, हमारा राजा या मित्र किसी पद पर हो या किसी विपदा में हो हमें उसका साथ नहीं छोड़ना चाहिए। दूसरी सीख ये कि अपने शुभचिंतकों, वफादारों और समर्पित मित्रों, सहयोगियों को कभी छोड़ना नहीं चाहिए।\

Jai Shriram 🙏 #goodmorning

Gepostet von Arun Govil am Sonntag, 31. Mai 2020

जामवंत जी ने आश्वासन दिया कि महाराज सुग्रीव की वानर सेना सीता जी का पता लगाएगी और आप अपने पराक्रम से बाली का वध करके सुग्रीव को उनका राज्य वापस दिलाएंगे। ऐसा करने से आप दोनों में एक मजबूत राजनीतिक संबंध भी बनेगा।

इस पर राम जी ने कहा-ऐसा तो कोई छुद्र व्यापारी ही कर सकता है कि पहले आप मेरी सहायता करें फिर मैं आपकी सहायता करूं। ये तो स्वार्थसिद्धि की बात हो गयी परन्तु मेरी प्रकृति में स्वार्थ का कहीं स्थान नहीं है।

जामवंत जी ने राम जी से ही मार्गदर्शन मांगा कि किस रिश्ते में बंधकर आप दोनों एक दूसरे का कल्याण कर सकते हैं? तो राम जी ने कहा–जिससे योनियों, जातियों, लोकों, धर्मों और समस्त ऊँच-नीच को लाँघ कर एक प्राणी दूसरे प्राणी से अटूट संबंध स्थापित कर सकता है वो नाता है मित्रता का नाता।

रामजी ने सुग्रीव से राजनैतिक संबंध नहीं बल्कि मित्रता का प्रस्ताव रखा और कहा इसमें कोई शर्त नहीं होगी, कोई लेनदेन नहीं होगा, कोई गिनती नहीं होगी, जो स्वार्थ की सीमा से परे होगा और जिस में केवल एक ही वस्तु का आदान-प्रदान होगा। वो है प्रेम अपहरण के समय सीता जी ने अपने कुछ आभूषण नीचे फेंके थे जिसे सुग्रीव जी ने संभाल के रखा था राम जी को वे आभूषण दिखाए गए तो एक एक आभूषण पहचान कर रामजी रोने लगे और लक्ष्मण से पूछा कि लक्ष्मण देखो ये हार ,ये कुंडल ,ये बाजूबंद सब सीता के ही हैं, तुम भी इन्हें पहचान रहे हो ना??

लक्ष्मण जी ने रोते हुए उत्तर दिया -‘भैया मैंने कभी सीता जी के मुंह की तरफ या शरीर को देखा ही नहीं तो मैं उनके हार, कुंडल और बाजूबंद कैसे पहचानूँ? हाँ उनके चरणों की पायल जो मैं उनके पैर छूते समय अक्सर देखा करता था उसे पहचान रहा हूं ये सीता मैया के ही हैं।

सीताराम जी के प्रथम मिलन पुष्प वाटिका से लेकर  सीता हरण तक लक्ष्मण जी सबसे अधिक समय तक सीता जी के साथ रहे हैं
परंतु उन्होंने सीता जी के चरणों के अलावा उनके शरीर को कभी देखा ही नहीं। ये है हमारे सनातन धर्म में रिश्तों की मर्यादा।