महाभारत को इस धरती पर हुए अब तक के सबसे बड़े युद्ध में से एक माना जाता है। परिवार के आपसी कलह और चचेरे भाइयों में ज़मीन जायदाद के विवाद से शुरू हुआ युद्ध इतना बड़ा हो गया था, कि उस समय धरती के लगभग सभी राजाओं से उसमें भाग लिया। उस युद्ध में एक से बढ़कर एक योद्धा थे। गुरु द्रोण और पितामह भीष्म जैसे योद्धा के साथ ही द्रोणाचार्य का पुत्र भी कौरवों के साथ उनकी सेना में शामिल हुए थे। अश्वत्थामा महाभारतकाल यानी द्वापर युग में जन्मे थे। उन्हें उस युग का श्रेष्ठ योद्धा माना जाता था। उनका कौरवों से एक और सम्बन्ध था, वे कुरु वंश के राजगुरु कृपाचार्य के भानजे थे। द्रोणाचार्य ने ही कौरवों और पांडवों को शस्त्र विद्या सिखाई थी। महाभारत के युद्ध के समय गुरु द्रोण ने हस्तिनापुर राज्य के प्रति निष्ठा होने के कारण कौरवों का साथ देना उचित समझा। पांडवों द्वारा द्रोणाचार्य का अंत कर देने पर उनके पुत्र अश्वत्थामा ने क्रोध में आकर ब्रह्मास्त्र चला दिया था। भगवान श्रीकृष्ण ने जब उससे होने वाले विनाश की जानकारी देते हुए ब्रह्मास्त्र वापस लेने को कहा तो अश्वत्थामा ने बताया उसे वापस लेने की विद्या नहीं आती है। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी शक्ति से ब्रह्मास्त्र को रोक दिया था, लेकिन अश्वत्थामा के माथे पर लगी मणि निकाल ली और शाप दिया कि वह अनंतकाल तक भटकता रहेगा। तब से अश्वत्थामा श्रीकृष्ण के शाप से अमर लोगों की श्रेणी में आ गए, लेकिन तब से भटक रहे हैं।
कहते हैं युगों युगों तक उन्हें इसी तरह भटकना होगा। क्योंकि साक्षात ईश्वर के शाप से भला उन्हने कैसे मुक्ति मिल सकती है। तब से लेकर अब तक एक युग का अंत हो गया, और दूसरा युग अपने चरम पर पहुँच गया, लेकिन अश्वत्थामा के लिए कुछ नहीं बदला है। पाप की सजा कभी कभी अनंत होती है।