औलाद से प्यारा माँ बाप को और कोई नहीं होता, माँ बाप अपने बच्चों की ख़ुशी के लिए सबकुछ न्योछावर कर देते हैं. बच्चों की छोटी छोटी ज़रूरतों का ख़याल रखते हैं. और माता पिता के अच्छे संस्कारों का प्रभाव बच्चों में भी दिखाई देता है. लेकिन पिता अपने पुत्र के वियोग को बर्दाश्त नहीं कर पाते. रामायण में भी ये बताया गया है.
जैसे ही राजा दशरथ से, उनकी रानी कैकई राम के वनवास का वर मांगती हैं, उसी क्षण जैसे राजा दशरथ के प्राण हलक में आ जाते हैं. लेकिन उन्हें लगता है कि, शायद कुछ चमत्कार हो जाए, और श्रीराम का वनवास टल जाए, और इस उम्मीद में वो जिंदा रहते हैं, पर रामजी के वन में जाते ही पुत्र वियोग में अपने प्राण त्याग देते हैं. माँ बाप से बड़ा कोई नहीं होता. श्रीराम ने भी ये साबित किया, राजा के पुत्र होते हुए भी पिता के दिए वचन का सम्मान करना ही उनका जीवन था. छोड़ दिया एक ही पल में सब कुछ, सुख, वैभव, राज पाट, और बन गए सन्यासी. प्रस्थान कर लिया वन के लिए, बिलकुल भी शिकायत नहीं, ना जीवन से, ना महारानी कैकई से, ना भाग्य से और न विधान से. प्रभु राम ही कर सकते थे ये, और नीयति ने भी यही तय कर रखा था.
जीवन विषमताओं से भरा होता है, यहाँ कदम कदम पर नई चुनौतियां इंसान के सामने सर उठाकर खड़ी होतीं हैं, लेकिन जो अपने माँ बाप का सम्मान करते हैं, और उन्हें खुश रखते हैं, वो दुनियां की हर लड़ाई में जीत हासिल करते हैं. और किसी भी चुनौती का सामना हंसकर कर लेते हैं, क्योंकि माँ बाप से बड़ा कोई नहीं होता. ईश्वर ने भी मानव रूप में धरती पर जन्म लेकर स्वयं ये माना है कि, माँ बाप का स्वरुप भगवान से भी बड़ा होता है. इसीलिए तो कहते हैं,
‘इधर उधर मत तलाशो, जिसकी उँगलियाँ पकड़कर चलना सीखा, उसे ही भगवान कहते हैं.’