मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का सानिध्य जिसे मिला उसका जीवन भवसागर से पार हो गया. प्रभु राम ने अपनी पत्नी माता सीता का विरह सहा, और पूरे सम्मान के साथ उन्हने लंका से वापस लाने का वचन लिया था. उनके इस नेक कार्य में सबका साथ था, जिनमें श्रीराम के अनुज लक्ष्मण जी, उनके मित्र महाराज सुग्रीव, जामवन्त जी, बाली पुत्र अंगद, और उनके परमभक्त पवनपुत्र हनुमानजी.
वो हनुमानजी ही थे, जो सबसे पहले श्रीराम का सन्देश लेकर माता सीता के पास लंका में पहुंचे थे. और अशोक वाटिका में जाकर उन्हें प्रभु राम का सन्देश दिया. और माता सीता से प्रभु राम के पास चलने के लिए निवेदन किया. माता सीता यदि चाहती तो हनुमानजी के साथ लंका से वापस आ सकतीं थी. पर कुछ ऐसे प्रमुख कारण थे, जिसकी वजह से उन्होंने ऐसा नहीं किया. और हनुमानजी से पूरी विन्मर्ता से मन कर दिया. और जब हनुमानजी ने इसका कारण पूछा तो माता सीता ने उन्हें बताया कि, यदि मैं आपके साथ चलती हूँ तो श्रीराम की मर्यादा का मान और उनकी कीर्ति कम हो जाएगी, और धरती पर उनके अवतार लेने का उद्धेश्य भी पूरा नहीं हो पायेगा. भगवान विष्णु ने रावण और उसके जैसे कई राक्षसों का अंत करने के लिए श्रीराम के रूप में मानव अवतार लिया था. इसके अलावा उन्होंने ये भी कहा कि, जिस रघुकुल के राजाओं से देवता भी सहायता मांगते थे, रावण ने उस प्रतापी इक्ष्वाकु वंश की बहू का अपहरण कर बड़ा अपराध किया है. माता सीता महिलाओं के सम्मान का प्रतिनिधित्व कर रही थीं, वह एक राज कन्या थीं. जो उनका अपहरण कर सकता है वह सामान्य महिलाओं के साथ कैसा व्यवहार कर सकता है. देवी सीता रावण के इस कायर व्यवहार के लिए उसे भगवान राम के हाथों प्राणदंड दिलवाना चाहती थीं. वे चाहती थीं रघुकुल की उज्ज्वल कीर्ति कायम रहे और रावण को उसके अपराध का पछतावा हो.
माता सीता जानती थीं कि रावण को वरदान था कि उसकी मृत्यु किसी मनुष्य के हाथों ही होगी. भगवान विष्णु ने रावण का वध करने के लिए ही श्रीराम के रूप में मानव अवतार लिया है. रावण के कर्मों से दूषित लंका को शुद्ध करवाने के लिए भी यह जरूरी था, जिससे वहां धर्म की स्थापना हो सके.
माता सीता ने हनुमानजी के साथ लौटने से इसलिए भी मना किया, क्योंकि वे अपने पतिव्रत धर्म का पालन कर रही थीं. वाल्मीकि रामायण में बताया गया है कि माता सीता ने कहा कि रावण बलपूर्वक उठाकर लंका ले आया था, उसमें मेरा वश नहीं था लेकिन मैं अपनी मर्जी से किसी अन्य पुरुष के साथ नहीं जा सकती. हालांकि माता सीता ने हनुमानजी को अपना पुत्र माना था, फिर भी लोक मर्यादा का पूरा ध्यान रखते हुए उन्होंने उनका आग्रह नहीं माना. तुलसीदासजी ने तो यह भी कहा है कि हनुमानजी के सामने भी यह धर्मसंकट था कि उन्हें भगवान श्रीराम ने सीताजी को वापस लाने की आज्ञा नहीं दी थी, बल्कि पता लगाने को कहा था, ऐसे में वे अपने साथ सीताजी को कैसे ले जा सकते थे. इस तरह दोनों ही अपने धर्म का पालन कर रहे थे. इस प्रकार माता सीता और हनुमानजी दोनों ही अपने धर्म का पालन कर रहे थे.