बेटा हो तो राम जैसा

एक बेटे के रूप में राम जी ने बचपन से लेकर जीवन भर जो व्यवहार निभाए हैं वे सारी दुनिया के बच्चों के लिए एक आदर्श हैं। आज हम स्टेटस के नाम पर कितना भेदभाव, ऊँचनीच, नफ़रत आदि को अपने व्यवहार में शामिल करते जा रहे हैं। अमीर – गरीब, छोटा – बड़ा, ऑर्थोडॉक्स – मॉडर्न जैसे न जाने कितने टुकड़ों में हमने स्वयं को बांट रखा है परंतु राम जी ने इन सब में बराबर का संतुलन बनाए रखने और सबसे समान व्यवहार करने का उदाहरण और प्रमाण अपने बचपन से ही प्रस्तुत किया है।

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गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में लिखा है–

प्रात काल उठि के रघुनाथा,
मात पिता गुरु नावहिं माथा।
आयसु माँगि करहिं पुर काजा,
देखि चरित हरसइ मन राजा।।

मतलब ये कि सबेरे उठकर राम जी अपने भाइयों के साथ अपने माता-पिता और सभी बड़ों का चरण स्पर्श करते हैं, आज्ञा लेकर काम करते हैं और उनका इस प्रकार का संस्कार और व्यवहार देखकर महाराज दशरथ बहुत प्रसन्न होते हैं।

राम – स्वयं एक चक्रवर्ती सम्राट के सबसे बड़े बेटे, एक महान साम्राज्य के राजकुमार, बेहद आकर्षक और बलवान, सभी प्रकार के साधन सुविधाओं और तीन तीन गुणी भाइयों से संपन्न होते हुए भी बचपन के खेल कभी अकेले या मात्र अपने भाइयों के साथ नहीं खेले बल्कि अपनी उम्र के सभी बच्चों के साथ खेलते थे। कभी कोई भेदभाव नहीं किया कि ये राजघराने के बच्चे हैं, ये मंत्रियों या पार्षदों के बच्चे हैं अथवा ये जनसामान्य के बच्चे हैं। राम जी हमेशा सब के साथ समान व्यवहार करते रहे, सबके साथ खेलते रहे और कभी-कभी तो दूसरों को ख़ुश रखने के लिए खेल में जीतते जीतते खुद जानबूझकर हार जाया करते थे।

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सारी उच्च शिक्षाएं पाने के बाद घर लौटते ही पिताजी ने विश्वामित्र जी के साथ जाने का आदेश दिया तो बिना किसी सवाल जवाब के तुरंत उनके साथ चले गए। युवावस्था में विवाह के तुरंत बाद ही अपनी तीन माताओं में से मात्र एक के कहने पर अपनी पत्नी और छोटे भाई के साथ चौदह सालों के लिए वनवास चले गए, कोई विरोध नहीं कोई सवाल जवाब नहीं। माता-पिता द्वारा लिए गए निर्णय पर ये है राम का व्यवहार।

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आज अगर हमारे मानव समाज का हर बच्चा राम जी के इस गुण को अपना आदर्श गुण मानकर-

सभी से समान व्यवहार करने लगे,
सबको बराबर आदर सम्मान देने लगे,
अपनी खुशी से पहले दूसरों की खुशी का ध्यान रखने लगे,
दूसरों की खुशी के लिए स्वयं की जीत या स्वयं की खुशी से समझौता करने लगे,
अपनी पढ़ाई लिखाई का अभिमान ना करके अपने माता-पिता की बात मानने लगे,
अपनी खुशी और अपनी सुख-सुविधा से पहले माता-पिता के विचारों और उनकी सुख सुविधा का ध्यान रखने लगे,

तो एक अच्छे इंसान की नींव उसमें बचपन से ही पड़ जाएगी। बड़े होकर यही बच्चे जीवन की हर चुनौती, हर परिस्थिति का सामना करने के काबिल बन सकते हैं और एक स्वस्थ, सुखी संसार की कल्पना साकार हो सकती है।