पौराणिक व्यक्तित्व (हमारे पूर्वज) स्वयंभुव मनु – मानव प्रजाति के जनक

सनातन वैदिक धर्म सहित विश्व के सभी धर्मों में समान रूप से यह मान्यता है कि मानवता का आरंभ मनु और शतरूपा से हुआ है।
तथ्यात्मक दृष्टि से देखा जाए तो हर ग्रंथ, मानवता की उत्पत्ति इन्हीं से मानता है।

शास्त्रों के अनुसार स्वयंभुव मनु ब्रह्माजी के मानस पुत्र हैं परंतु व्यावहारिक रूप से वे स्वयं उत्पन्न हुए हैं और मानव सभ्यता के निर्माण में उनकी सहयोगिनी माता शतरूपा भी स्वयं ही प्रकट हुई हैं। स्वयंभुव का अर्थ भी यही है कि जो स्वयं उत्पन्न हुआ हो।

मनु द्वारा उत्पन्न होने के कारण ही जीवों की यह विशेष प्रजाति मनुष्य अथवा मानव कही जाती है। मैन, मानव , मनुष्य, मनुज, आदम, आदमी आदि शब्द किसी न किसी रूप से मनु से ही जुड़े हुए हैं।

इस भौतिक संसार में समय को मापने का हमारा सबसे बड़ा पैमाना है युग। युग चार हैं और इन चारों को मिलाकर एक चतुर्युगी बनती है जो मानवीय गणना के अनुसार 43 लाख 20 हजार साल की होती है।

जब ऐसी एक हजार चतुर्युगियाँ पूरी हो जाती हैं तब उसे एक कल्प कहा जाता है और हर कल्प में चौदह मनु होते हैं।
इनके नाम हैं-
01- स्वयंभुव मनु
02- स्वरोचिष मनु
03- उत्तम मनु
04- तामस या तापस मनु
05- रैवत मनु
06-चाक्षुषी मनु
07- वैवस्वत या श्राद्धदेव मनु
(इस समय यही मन्वंतर चल रहा है)
08- सावर्णि मनु
09- दक्ष सावर्णि मनु
10- ब्रह्म सावर्णि मनु
11- धर्म सावर्णि मनु
12- रुद्र सावर्णि मनु
13- देव सावर्णि या रौच्य मनु
14- इंद्र सावर्णि या भौत मनु

एक ‘मनु’ के कार्यकाल को मन्वंतर कहा जाता है। इस प्रकार 14 मन्वंतरों का एक कल्प होता है। जैन धर्म में भी 14 कुलकरों की मान्यता है।
वर्तमान में वराह कल्प के अंतर्गत वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है जो इस कल्प के सातवें मनु थे। इनकी संगिनी रहीं माता शतरूपा। इनके दो पुत्र हुए- प्रियव्रत और उत्तानपाद तथा तीन पुत्रियां हुईं – आकूति, देवहूति और प्रसूति।

इन्हीं महाराज मनु ने मानव जाति के कल्याण और संसार की धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व्यवस्था को संतुलित और सुचारु बनाये रखने के लिए बहुत से दिशा निर्देश और ज्ञान से भरे ग्रंथ ‘मनु स्मृति’ की रचना की थी। मानवता के लिए यह ग्रंथ बहुत उपयोगी है किंतु मूल प्रति उपलब्ध ना होने के कारण आज अपने अपने हिसाब से उसका अर्थ निकाल कर मानव अनर्थ करने में लगा हुआ है और अपने ही काम के एक बहुत ही महत्वपूर्ण ज्ञान से वंचित है।

इन्हीं मनु और शतरूपा ने घोर तपस्या करके परमपिता परमेश्वर को अपने पुत्र के रूप में पाने का वरदान पाया और कालांतर में दशरथ कौशल्या बनकर अयोध्या में आए और इन्हीं के पुत्र बनकर राम जी ने अवतार लिया।

प्रलय अथवा विनाश का उल्लेख विश्व के हर धर्म में किसी न किसी रूप में मिलता है। सनातन वैदिक धर्म में भी शास्त्रों की मान्यता के अनुसार हर मन्वंतर के बाद एक आंशिक प्रलय होती है जिसमें संपूर्ण मानवता समाप्त हो जाती है और जब अगले मनु उत्पन्न होते हैं तब फिर से मानव सभ्यता आरंभ होती है। इस प्रलय काल में मनु , सप्त ऋषियों और कुछ जीवों को भगवान श्रीहरि के मत्स्य (मछली) अवतार द्वारा बचाए जाने का उल्लेख वैदिक पुराणों में मिलता है। वैदिक मतानुसार मत्स्य अवतार भगवान विष्णु का पहला अवतार है।

इस प्रकार सृष्टि का यह खेल अनन्त काल से चलता आ रहा है जो कई कई चरणों में प्रारंभ होता है समाप्त होता है, फिर प्रारंभ होता है फिर समाप्त होता है और एक ही कल्प अर्थात ब्रह्मा जी के एक ही दिन में 14 मनु उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं।
इति कृतम्