चित्रकूट में अपने पिता जनकराज से मिलने पर सीता जी का व्यवहार बड़ी बारीकी से देखने सुनने और समझने लायक है। सीता जी के अयोध्या आने में और आज की परिस्थिति में जमीन आसमान का अंतर आ गया है, राजमहल से सीधे वन में ले आया है समय फिर भी सीता जी अपनी ससुराल पक्ष की कोई शिकायत या अपना कोई दुख जनकराज से नहीं कहती और ना ही जनक जी से किसी प्रकार की आशा अभिलाषा करती हैं।
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यही परिस्थिति अगर आज किसी नारी के जीवन में आई होती तो पहले तो वो ससुराल का सुख ऐश्वर्य छोड़कर पति के साथ दुख झेलने वन में जाती ही नहीं और अगर जाती भी तो अपने माता-पिता अपने भाई आदि को सारी परिस्थिति अवश्य बता देती और अपने सारे दुखड़े भी सुना देती। सीता जी को अपने माता-पिता की आन रखने का स्वाभिमान है तो उनके माता-पिता सुनैना और जनकराज को अपनी पुत्री द्वारा उनके दिए संस्कार और शिक्षा का मान रखने का गर्व है।
राज्य और सत्ता की लालसा के लिए हमेशा युद्ध होते रहे हैं परंतु चित्रकूट में प्रेम और मर्यादा का युद्ध चल रहा है। भरत के प्रेम और त्याग तथा राम के धर्म और मर्यादा। चित्रकूट में ये जो प्रसंग बना ये धरती के हर इंसान के लिए एक बहुत बड़ी सीख है।
इसे आसानी से समझना या समझाना मुश्किल है परंतु रामायण को पढ़कर सुनकर या देखकर इस महा उपयोगी प्रसंग को जाना समझा जा सकता है और जीवन में उतारा जा सकता है। भाई भाई के आपसी प्रेम का ऐसा उदाहरण न भूतो न भविष्यति। रामायण इसीलिए जरूरी है।
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Gepostet von Arun Govil am Dienstag, 12. Mai 2020
आज रिश्तो में प्रेम और त्याग बहुत ही कम हो गए हैं इसीलिए संसार में दुख बढ़ा हुआ है। इंसान अगर सच्चा प्रेम और अपने अपनों के लिए त्याग करना सीख ले तो संसार की अधिकांश समस्याएं स्वत: समाप्त हो जाएं। राम के प्रतिरूप की तरह राम की चरण पादुका लेकर भरत अयोध्या लौट आए और राम के प्रतिनिधि बनकर राजकाज करने लगे परंतु अयोध्या में भरत के त्याग का एक और अद्वितीय उदाहरण।
राम वन में भूमि पर सोते हैं और भरत स्वयं को राम का सेवक मानते हैं। इसलिए वे नंदीग्राम में जमीन खोदकर भूमि की सतह से नीचे सोते हैं। रोज सिंहासन पर विराजमान पादुकाओं की पूजा करते हैं और उन्हीं की आज्ञा से सारा राजकाज करते हैं।
भरत का यह चरित्र शब्दों में कहना असंभव है इसे रामायण में राम में और भरत में प्रेम पैदा करके ही जाना जा सकता है।