राम – एक आदर्श एक आवश्यकता

जब जब होइ धरम कै हानी, बाढहिं असुर अधम अभिमानी।
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा, हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।

जब-जब धर्म की हानि होती है। असुर,अधर्मी और अभिमानी बढ़ जाते हैं तब तब कृपानिधान भगवान तरह-तरह के शरीर धारण करके सज्जनों की पीड़ा हरते हैं।भगवान विष्णु के सातवें अवतार, महाराज दशरथ के पुत्र श्रीराम की जितनी मान्यता और उपयोगिता ईश्वर के रूप में है उससे कहीं अधिक आज उनकी आवश्यकता और उपयोगिता एक आदर्श मानव के रूप में है।

श्री राम को हम चाहे ईश्वर के रूप में देखें, चाहे एक राजा के रूप में या फिर एक सामान्य मानव के रूप में देखें, उनका हर रूप, हर व्यवहार हमें जीवन के लिए बहुत उपयोगी शिक्षाएं देता है।

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मानव समाज की सबसे बड़ी समस्याएं हैं स्वार्थ और अहंकार। इन दो भावनाओं के कारण विश्व में सारे अपराध और विवाद होते रहते हैं परंतु राम जी के चरित्र और व्यवहार ने इन दोनों विकारों पर विजय पाने का सबसे व्यवहारिक आदर्श प्रस्तुत किया है–

आज हम स्टेटस के नाम पर भेदभाव, नफरत आदि को अपने व्यवहार में शामिल करते जा रहे हैं। अमीर – गरीब, छोटा – बड़ा, ऑर्थोडॉक्स – मॉडर्न जैसे न जाने कितने टुकड़ों में हमने स्वयं को बांट रखा है परंतु राम जी ने इन सब में बराबर का संतुलन बनाए रखने और सबसे समान व्यवहार करने का उदाहरण अपने बचपन से ही स्थापित किया है।

चक्रवर्ती सम्राट के सबसे बड़े बेटे, एक महान साम्राज्य के राजकुमार, बेहद आकर्षक और बलवान, सभी प्रकार के साधन सुविधाओं और तीन तीन भाइयों से संपन्न होते हुए भी बचपन के खेल वे कभी अकेले या मात्र अपने भाइयों के साथ नहीं खेले बल्कि अपनी उम्र के सभी बच्चों के साथ खेलते थे। कभी कोई भेदभाव नहीं किया कि ये राजघराने के बच्चे हैं, ये मंत्रियों के बच्चे हैं या ये जनसामान्य के बच्चे।

कभी-कभी तो दूसरों को प्रसन्न रखने के लिए खेल में स्वयं जीतते जीतते जानबूझकर हार जाया करते थे। रामचरितमानस में राम जी के लिए भरत जी कहते हैं-

मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही।
हारेहुँ खेल जितावहिं मोही।।

अर्थात मैं राम जी की कृपा की रीत को अच्छी तरह जानता हूं। मेरे हारने पर भी खेल में मुझे जिताते रहे हैं।

वहीं हम आज देखते हैं कि बड़े घरों के अधिकांश बच्चों का एक अलग ही एटीट्यूड होता है। वे अपनी मनमानी करने और स्टेटस दिखाने के चक्कर में नियम कानून तोड़ने और किसी का अपमान करने ,दिल दुखाने तक से बाज नहीं आते।

आजकल अक्सर बच्चों के मुंह से कहते हुए सुना जाता है कि ‘तुमको पता है मेरा बाप कौन है? तुमको पता है मैं किस खानदान का हूं?’

उनमें ये अहंकार और दुर्व्यवहार वाला संस्कार कहां से आता है ये सोचने वाली बात है क्योंकि कभी कभी ये भी देखने सुनने में आता है कि माता पिता ख़ुद ही बच्चों से कहते हैं कि ‘यारी दोस्ती स्टेटस देख के करना’  या घर मे माता पिता के ही बात करने के तरीके, हाव भाव और व्यवहार बच्चे देखते सुनते हैं जिनका प्रभाव बच्चों पर अबसे पहले पड़ता है क्योंकि घर ही बच्चे की पहली पाठशाला होती है।

मतलब ये कि बचपन की इन आदतों के लिए माता पिता का रहन सहन और परिवार का माहौल काफी हद तक जिम्मेदार है।

जय श्रीराम🙏

Gepostet von Arun Govil am Mittwoch, 13. Mai 2020

आज अगर समाज के हर माता पिता, अभिभावक, अध्यापक राम जी के गुण और आदर्शों को बच्चों को सिखाने लगें और बच्चे भी इन्हें मानकर सभी से समान व्यवहार करने लगें, सबको बराबर आदर सम्मान देने लगें, दूसरों की खुशी के लिए स्वयं की जीत या स्वयं की खुशी से समझौता करने लगें तो एक अच्छे इंसान की नींव उनमें बचपन से ही पड़ जाएगी।

और कल बड़े होकर ये ही बच्चे जीवन की हर चुनौती, हर परिस्थिति का सामना करने और समाज मे आपसी सद्भाव सौहार्द्र बनाने के काबिल बन सकते हैं।

और इसीलिए आवश्यक है कि हम रामायण के आचार- विचारों, संस्कारों और परंपराओं को जानें जिनको जीवन में उतार लेने पर हम अपने साथ साथ दूसरों को भी सुखी रख सकते हैं और एक समृद्ध राष्ट्र और सुखी संसार के निर्माण में सहयोगी बन सकते हैं।

🙏🏻🙏🏻 जय श्री राम 🙏🏻🙏🏻