चित्रकूट में भरत मिलाप प्रसंग के बाद राम जी अपनी गोपनीयता बनाए रखने और वनवास तक नगर निवासियों से दूर रहने के विचार से दक्षिण की ओर गहन वन में चले गए।
दंडकारण्य के ऋषि-मुनियों के मतानुसार–व्यक्तिगत रूप से रामजी भले ही वनवास में थे परंतु राजनीतिक रूप से वे संपूर्ण साम्राज्य के महाराजा थे और इस हिसाब से उन्होंने राम जी से अपनी सुरक्षा की कामना की।
रामजी ने एक क्षत्रिय और एक राजा होने का उत्तर दायित्व निभाते हुए 10 वर्षों तक दंडकारण्य क्षेत्र के अधिकांश राक्षसों असुरों का विनाश किया और संतों की रक्षा की। आशय ये है कि अपने वनवास के दुख और परेशानी को स्वयं पर प्रभावी ना होने देते हुए। संतों के रक्षा रूपी उत्तरदायित्व को राम जी ने पूरी तत्परता से निभाया।
महर्षि अगस्त्य ने वनवास की शेष अवधि अपने आश्रम में बिताने का प्रस्ताव रखा तो रामजी ने कहा– आपके चरणों की छाया में रहकर आध्यात्मिक लाभ प्राप्त करूं और शांति पाऊं इससे अधिक सौभाग्य और क्या हो सकता है? परंतु मैं दंडक वन को राक्षसों और आसुरी शक्तियों से मुक्त करने का प्रण कर चुका हूं इसलिए अपने आप को इस परम सुख से वंचित करने को विवश हूं।। ऐसे हैं कर्तव्य परायण प्रभु श्री राम जो सत्य और धर्म की रक्षा के साथ साथ अधर्म और पाप का विनाश करते आ रहे हैं और यह पावन कार्य उन्हें आगे भी करते रहना है।
महर्षि अगस्त्य ने राम लक्ष्मण को ऐसे ऐसे अस्त्र-शस्त्र दिए जो तीनों लोक पर विजय प्राप्त करने में सक्षम थे। इन्हीं में दो तरकश थे जो कभी खाली नहीं होते थे। इस तरकश के बाण अपना लक्ष्य नष्ट करके वापस तरकश में आ जाते थे। ये है हमारे शस्त्र विज्ञान की वास्तविकता।
आज हम मिसाइलों की बात करते हैं जो अपना लक्ष्य भेद कर वापस आने की तकनीकी से युक्त हैं परंतु हमारे ऋषि- मुनियों, प्राचीन वैज्ञानिकों ने यह तकनीकी लाखों साल पहले विकसित की थी और रामायण काल में इसका उपयोग भी हुआ है। एक पक्षी जटायु के साथ राम का आत्मीय संवाद ,राम के जीव प्रेम का जीवंत उदाहरण है।
पंचवटी में गोदावरी के किनारे लक्ष्मण जी द्वारा बहुत ही सुंदर पर्णकुटी बनाये जाने पर प्रशंसा में राम जी कहते हैं–विश्वकर्मा बड़े-बड़े भवन का निर्माण कर सकते हैं परंतु राजमहल से बढ़कर पर्णकुटी बात की बात पर खड़ी कर देना तो बस लक्ष्मण का ही काम है। यहां तो विश्वकर्मा को भी हार माननी पड़ेगी। मतलब यह कि किसी के किए गए काम की सराहना करना और श्रेय देना कोई राम से सीखे।
वनवास के लगभग 12 वर्ष पूरे हो रहे हैं। पंचवटी की कुटी में एकदिन अपनी जन्मभूमि अयोध्या को याद करके रामजी भाव विभोर हो जाते हैं और बोल उठते हैंअयोध्या का नाम स्मरण करते ही जन्म भूमि की माटी की सोंधी सुगंध मेरे रोम रोम में समा जाती है।
Jai Shriram 🙏#goodmorning
Gepostet von Arun Govil am Dienstag, 26. Mai 2020
आशय यह है कि वचन और कर्तव्य पालन में मातृभूमि से दूर रहकर भी राम जी के मन में मातृभूमि का प्रेम वैसा का वैसा बना रहा। पंचवटी में ही लक्ष्मण जी को अपने क्रोधी स्वभाव पर बड़ा पछतावा होता है और स्वयं द्वारा क्रोध में हुए अपराधों के लिए क्षमा का उपाय पूछते है। जिसका जवाब उन्हें सीता जी देती है और कहती हैं कि भावुक हृदय से किया गया पश्चाताप। क्रोध में किए गए सारे अपराधों की क्षमा है।
शूर्पणखा द्वारा भांति भांति के प्रलोभन देने और अपने भाई रावण आदि का दंभ दिखाने के बाद भी राम-लक्ष्मण पर उसकी प्रभुता का कोई प्रभाव नहीं पड़ा
और लक्ष्मण के हाथों उसकी नाक काटी गई। यहां से सूत्रपात हुआ राम जी के उस परम उद्देश्य का जिसके लिए वे बन में आए थे।
शूर्पणखा एक स्वतंत्र विचारों वाली अभिमानी नारी थी। अपनी वासना के लिए राम लक्ष्मण से उलझी और कामना पूरी ना होने पर अपने पराक्रमी भाइयों खर दूषण को झूठी कहानियां बताकर भड़काया।
परिणाम ये हुआ कि खर दूषण अपनी पूरी सेना सहित राम के हाथों मारे गए। नारियों का स्वतंत्र होना आवश्यक है पर इतना भी नहीं कि वे निरंकुश हो जाएं और मर्यादा तोड़ें। शूर्पणखा ने यही गलती की और उसके राक्षस कुल के विनाश का बीजारोपण हो गया।
रामजी ने सत्य ही कहा था–
एक लज्जाहीन स्त्री जब कामातुर हो जाए तो उससे भयानक और कोई नहीं होता। वो तिरस्कृत होकर अपना और दूसरों का सर्वनाश कर सकती है।