सोच भी बन जाती है शर्मिंदगी की वजह

कई बार ऐसा होता है जब हम किसी व्यक्ति को बिना उसकी बात पूरी सुने और समझे गलत समझ लेते हैं। इस कारण हमें बाद में शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है। आज हम ऐसी ही जातक कथा के बारे में जानेंगे, जिसमें एक राजा ने एक सन्यासी को बिना उसकी बात का मतलब जाने ही गलत समझ लिया। बाद में राजा को अपनी भूल का अहसास हुआ तो उसे शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा।

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एक समय था जब हिमालय में एक सन्यासी अपने हजारों शिष्यों के साथ रहता था। एक बार वर्षा ऋतु से पहले सन्यासी अपने शिष्यों के साथ वाराणसी नगर में आया। वाराणसी के राजा ने सन्यासी की खूब आवभगत की। वर्षा ऋतू बीत जाने के बाद सन्यासी ने अपने शिष्यों के साथ वापस हिमालय की ओर लौटने का फैसला किया। राजा को यह बात पता चली तो राजा ने सन्यासी से विनती की कि आप कुछ दिनों तक और यहां रहिए। सन्यासी ने राजा का आग्रह स्वीकार किया और कुछ दिन वहीं ठहरने का निर्णय किया।

सन्यासी ने अपने प्रिय शिष्य के नेतृत्व में सभी शिष्यों को हिमालय भेज दिया। कुछ महीनों के बाद सन्यासी का प्रिय शिष्य वापस अपने गुरु से मिलने के लिए वाराणसी आया। राजा ने सन्यासी के प्रिय शिष्य का सम्मान किया और सन्यासी व शिष्य के सामने शाही पकवान परोसे। भोजन करते समय शिष्य ने अपने गुरु से कहा कि, ‘वाह! क्या सुख है।”

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राजा ने शिष्य की बात सुन ली। राजा ने सोचा कि यह शिष्य कितना लालची है। शाही पकवान के लालच में ही यह अपने गुरु से मिलने के बहाने यहां आया है। राजा के चेहरे का भाव देख सन्यासी समझ गया कि वह क्या सोच रहा है। सन्यासी ने राजा से कहा आप जो समझ रहे हो, वह सही नहीं है। दरअसल मेरा शिष्य किसी समय एक बहुत बड़ा सम्राट हुआ करता था। इन्होने सांसारिक सुख त्याग कर सन्यास ग्रहण कर लिया है। और यहां शाही पकवान का सुख नहीं बल्कि संन्यास के सुख के बारे में बात हो रही है। सन्यासी की बात सुनकर राजा को अपनी गलती का अहसास हुआ और उसका सर शर्म से झुक गया।