वेद ईश्वर की वाणी हैं, इन्हें भगवान श्रीहरि का श्वास भी कहा जाता है। सृष्टि के समस्त विषयों एवं वस्तुओं का संपूर्ण ज्ञान वेदों में ही समाया हुआ है। सृष्टि के प्रारंभिक काल में वेद मात्र एक ही था, कालांतर में तीन वेद हुए और ‘वेदत्रयी’ कहलाए। द्वापर युग में अथर्ववेद को वेदों में सम्मिलित करके इनकी संख्या चार हुई और इन्हें ‘चतुर्वेद’ कहा गया। ये चारों वेद ही हमारे सनातन धर्म के, मानवता के, अध्यात्म के आधार स्तंभ हैं।
चारों वेदों में ऋग्वेद को प्रथम वेद माना गया है। ऋक् का अर्थ है स्थित और वेद का अर्थ है ज्ञान अर्थात जो ज्ञान में स्थित हो या जिसमें ज्ञान स्थित हो वह है ऋग्वेद। ऋग्वेद स्वयं में संपूर्ण है। शाब्दिक अर्थ की एक और परिभाषा है कि जो ऋचाओं में रचनाबद्ध है वह है ऋग्वेद।
चतुर्वेद का यह प्रथम भाग ऋग्वेद पद्यात्मक ग्रंथ है, इसके सभी मंत्र छंदबद्ध हैं। ऋग्वेद मानव सभ्यता का प्रथम ग्रंथ है। उपलब्ध प्रमाणों और शोधकार्यों के अनुसार ऋग्वेद का लिखित संकलन ‘सप्तसिंधु प्रदेश’ (वर्तमान में कश्मीर, पंजाब और पाकिस्तान के कुछ क्षेत्र) में किया गया। प्राचीन भारतवर्ष के इस क्षेत्र ‘सप्त सिंधु प्रदेश’ को वेदों के उदय का क्षेत्र भी माना जाता है।
ऋग्वेद की रचना किसी निश्चित समय या किसी निश्चित ऋषि, मनीषी द्वारा संकलित या लिपिबद्ध नहीं की गई है अपितु समय समय पर ऋषियों, मनीषियों ने अपनी ज्ञानदृष्टि द्वारा इनका संकलन किया है।
ऋग्वेद में सृष्टि की व्यवस्था के अधिकारी देवताओं की प्रार्थनाएं, स्तुतियां, भिन्न-भिन्न लोकों, देवलोक, स्वर्गलोक आदि की स्थितियों का वर्णन है। इस वेद में च्यवन ऋषि की कथा है जिन्होंने वेदज्ञान के बल पर अक्षय यौवन प्राप्त किया था। दैवीय तथा आसुरीय प्रवृत्ति और उसके लक्षण आदि का वर्णन इसी वेद में है।
ऋग्वेद में 10 मंडल (अध्याय) हैं और कुल मंत्रों की संख्या 11000 (ग्यारह हजार) मानी जाती है। प्रथम मंडल और दशम अर्थात अंतिम मंडल में औषधि विज्ञान से संबंधित मंत्र हैं। दूसरे से सातवें मंडल तक का भाग ऋग्वेद का श्रेष्ठतम भाग माना जाता है। आठवें मंडल में प्रथम मंडल से संबंधित औषधि विज्ञान का ही विस्तार है। नवम मंडल सोम सूक्तों का संग्रह है। उपलब्ध अध्ययन के आधार पर ऋग्वेद में लगभग 125 औषधियों का वर्णन है जो भूमंडल पर लगभग 107 स्थानों पर पाई जाती हैं।
ऋग्वेद के प्रथम मंडल के रचयिता अनेक ऋषि हैं, द्वितीय के गृत्समय, तृतीय के विश्वामित्र, चतुर्थ के वामदेव,पंचम के अत्रि, षष्ठम के भारद्वाज, सप्तम के वशिष्ठ, अष्टम के कण्व एवं अंगिरा, तथा नवम दशम मंडल के रचयिता अनेक ऋषि हैं।
ऋग्वेद में विभिन्न ऋषियों द्वारा भिन्न-भिन्न छंदों में रचित लगभग 400 ऋचाएं (स्तुतियाँ) हैं जो अग्नि, वायु, वरुण, इंद्र, विश्वेदेव, मरुत, प्रजापति, सूर्य, उषा, पूषा, रुद्र, सविता आदि देवताओं को समर्पित हैं।
ऋग्वेद की पांच प्रमुख शाखाएं मानी जाती हैं- शाकल्य, वास्कल, आश्वलायन, शांखायन तथा मंडूकायन। वैदिक विद्वानों के अनुसार इस वेद की इक्कीस शाखाओं की मान्यता भी है। ऋग्वेद का उपवेद है- ‘आयुर्वेद’ और इसके आधार हैं धन्वंतरि जिन्हें चिकित्सा विज्ञान का भगवान माना जाता है।
वर्तमान में ऋग्वेद के दस उपनिषद उपलब्ध बताए जाते हैं जो इस प्रकार हैं- ऐतरेय, आत्मबोध, कौषीतकि, मुद्गल, निर्वाण, नादबिंदु, अक्षमाया, त्रिपुरा, बह्वरुका और सौभाग्य लक्ष्मी।रचना के आधार पर ऋग्वेद को दो प्रकार के क्रम में बांटा गया है- पहला है अष्टक क्रम और दूसरा है मंडल क्रम।
अष्टक क्रम में संपूर्ण ग्रंथ आठ अष्टकों में बँटा हुआ है और प्रत्येक अष्टक आठ अध्यायों में बँटा हुआ है, प्रत्येक अध्याय कई कई वर्गों में बटा हुआ है और वर्गों की कुल संख्या 2006 है। मंडल क्रम में ऋग्वेद दस मंडलों में बँटा हुआ है और प्रत्येक मंडल- अनुवाक, अनुवाद सूक्त तथा सूक्त मंत्र या ऋचाओं में बँटा हुआ है।
यूनेस्को ने ऋग्वेद की अट्ठारह सौ से पंद्रह सौ ईसवी पूर्व की लगभग तीस पांडुलिपियों को विश्व की सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है।
यद्यपि आज वेद अपने मूल और संपूर्ण रूप में उपलब्ध नहीं हैं तथापि जितने भी उपलब्ध हैं, हमें उनके बारे में जानना, समझना चाहिए ताकि हम एक व्यवस्थित विश्व की स्थापना में सहयोगी बन सकें।
हरि ॐ तत्सत्