संगीत का जनक – सामवेद

सृष्टि के कल्याण और व्यवस्थित संचालन के लिए परमपिता परमेश्वर द्वारा सृष्टि के प्रारंभ से ही दिए गए ज्ञान के भंडार को वेद कहा जाता है। चार वेदों- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद में हर वेद का अपना विशेष महत्व है। इनमें सामवेद, वेदों का ‘संगीत प्रधान’ भाग है। प्राचीन भारत वर्ष में आर्यों द्वारा सामवेद के पदों का स्वर सहित गायन किया जाता था जिसे ‘साम गान’ कहते हैं।

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आकार प्रकार और वर्ण्य विषय की दृष्टि से सामवेद चारों वेदों में सबसे छोटा है। इस वेद में कुल अट्ठारह सौ पचहत्तर (1875) मंत्र हैं। सामवेद में शेष तीनों वेदों के बहुत से मंत्रों का संकलन है जिनमें ऋग्वेद के पन्द्रह सौ चार (1504) मंत्र, अथर्ववेद के सत्रह (17) मंत्र तथा यजुर्वेद के अनेक मंत्रों का समावेश है। मूलरूप से सामवेद में नए मंत्र मात्र उनहत्तर (69) हैं। बाकी सारे मंत्र अन्य तीनों वेदों से लिए गए हैं परंतु मान्यता और महत्व की दृष्टि से इस वेद की प्रतिष्ठा सबसे अधिक है। इस वेद की महिमा, गरिमा और महत्ता का परिचय इसी प्रसंग से मिल जाता है कि श्रीमद् भगवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना वैभव बताते हुए कहा है-
‘वेदानां सामवेदोस्मि’
अर्थात वेदों में मैं सामवेद हूं।

वास्तव में सामवेद तीनों वेदों के सारांश स्वरूप है। ‘वेदत्रयी’ के महत्वपूर्ण अंशों का संकलन है सामवेद। सामवेद संहिता के दो भाग हैं- आर्चिक और गान।

पौराणिक मान्यताओं एवं उल्लेखों के अनुसार सामवेद की 1000 शाखाएं होने की बात स्वीकार की जाती है। वर्तमान समय में सामवेद में वर्णित- प्रपंच हृदय, दिव्यावदान, चरणव्यूह तथा जैमिनि सूत्र आदि में सामवेद की मात्र तेरह (13) शाखाएं ही उपलब्ध हैं। इन तेरह (13) शाखाओं में तीन आचार्यों – कौमुथ, राणायन तथा जैमिनि की क्रमशः तीन शाखाओं- कौमुथीय, राणायनीय और जैमिनीय का ही विस्तार है।
सामवेद का पठन-पाठन, अध्ययन करने वाला विद्वान उद्गाता कहा जाता है। महाभारत के अनुशासन पर्व में कहा गया है- ‘सामवेदश्च वेदानां, यजुषां शतरुद्रीयम’ अर्थात वेदों में ‘साम’ और यजुषां में ‘शतरुद्री’ विशेष महत्वपूर्ण हैं।

अग्निपुराण के अनुसार सामवेद के भिन्न-भिन्न मंत्रों के विधिवत जप आदि से भिन्न भिन्न रोगों से बचा जा सकता है या पूरी तरह मुक्ति भी पाई जा सकती है साथ ही भिन्न-भिन्न कामनाओं को भी सिद्ध किया जा सकता है।

ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग का संगम है सामवेद। हमारे प्राचीन ऋषियों ने विशेष मंत्रों का संकलन करके उनके स्वर – ताल बद्ध गायन की तकनीकि विकसित की। आधुनिक विज्ञान और विद्वान भी यह मानने लगे हैं कि सभी स्वर, ताल, छंद, गति, मंत्र, स्वर चिकित्सा, राग नृत्य मुद्रा, भाव भंगिमा आदि का आरंभ सामवेद से ही हुआ है।

जिस प्रकार ऋग्वेद के मंत्रों को ‘ऋचा’ कहते हैं,
यजुर्वेद के मंत्रों को ‘यजूंषि’ कहते हैं,
उसी प्रकार सामवेद के मंत्रों को ‘सामानि’ कहते हैं।

सामवेद के सत्ताइसवें (27) मंत्र का भावार्थ देखें – यह अग्नि, द्यूलोक से पृथ्वी लोक तक सर्वत्र व्याप्त है और जीवों का पालनकर्ता है। यह जल को रूप एवं गति देने में समर्थ है।

सरल भाषा में समझें तो ये कहा गया है कि- ‘सूर्य का तेज आकाशलोक से पृथ्वीलोक तक हर जगह व्याप्त है। सभी के जीवन का मुख्य कारण है। पानी को वाष्प में, बादल में तथा मौसम परिवर्तन के द्वारा बर्फ बनाने में समर्थ है।  (सारे मौसम सूर्य से ही नियंत्रित होते हैं यह एक सार्वभौमिक सत्य है जिसे सब मानते हैं।) साथ ही यह भी वर्णन है कि ‘इंद्र ने पृथ्वी को घुमाते हुए रखा है, चंद्र के मंडल में सूर्य की किरणें विलीन होकर उसे प्रकाशित करती हैं।’

सामवेद में वर्णित ये कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिनसे यह प्रमाणित होता है कि हमारे पूर्वजों को ऐसे ऐसे वैज्ञानिक तथ्यों का ज्ञान था जिनका आधुनिक विज्ञान को हजारों साल बाद भी अभी तक ठीक से ज्ञान नहीं है। साम गान के संदर्भ में वैदिक काल में कई वाद्य यंत्रों का उल्लेख मिलता है जिनमें-
तंतु वाद्य (Strings) में वीणा, कन्नड़ वीणा तथा कर्करी आदि हैं।
घन वाद्य (Solid) में दुंदुभी और आडंबर।
साथ ही तुरभ, नादी, बंकुरा आदि वाद्य सम्मिलित हैं।
सामवेद की गायन पद्धति का वर्णन नारदीय शिक्षा ग्रंथ में मिलता है। इसी वर्णन को आज ‘हिंदुस्थानी संगीत’ और ‘कर्नाटक संगीत’ में ‘स्वरों के क्रम’ – सा, रे, गा, मा, पा, धा, नि के रूप में जाना जाता है,जो हैं-
सा- षड़ज
रे – ऋषभ
गा – गांधार
मा – मध्यम
पा – पंचम
धा – धैवत
नि – निषाद ।

ऋग्वेद में – वैरूपं, बृहतं, गौरवीति, रेवतं, अर्के आदि नामों से लगभग इकत्तीस (31) बार साम गान की चर्चा हुई है। शाखाओं के संदर्भ में सामवेद की शाखाएं सबसे अधिक एक सहस्र (1000) मानी जाती हैं जिनके अनुसार इस वेद के ब्राह्मण ग्रंथ भी इतने ही होने चाहिए परंतु वर्तमान में मात्र 10 ही उपलब्ध हैं। छांदोग्य उपनिषद सामवेद का ही उपनिषद है जो उपनिषदों में सबसे बड़ा है।

सारांश रूप में यह कहा जा सकता है कि विश्व की किसी भी विधा का ज्ञान वेदों से बाहर नहीं है, आवश्यकता है हमें इन विश्व उपयोगी, मानव कल्याणी ग्रंथों को जानने और समझने की।
हरि ॐ तत्सत्