हनुमान जी अपने स्वामी की सेवा और परोपकार की भावना दोनों का संकल्प लेकर लंका से हिमालय की ओर उड़े थे।
नेक कामों में बाधाएं आती ही हैं चाहे वो हनुमान हों या इंसान हो।
रावण का भेजा राक्षस कालनेमि, साधु वेश बनाकर हनुमान के पथ की बाधा बना परन्तु मकरी द्वारा उस राक्षस का भेद जानकर मकरी का भी उद्धार किया और कालनेमि का वध करके संजीवनी बूटी लेने हिमालय पहुंचे।
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साधु-संतों का भेष बनाकर सत्य और धर्म के मार्ग में चलने वालों को बाधा पहुंचाना कुछ अधर्मियों द्वारा आज भी होता है परंतु इनसे हमें अपने संकल्प और लक्ष्य से विचलित नहीं होना चाहिए।
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हिमालय से लंका वापसी में हनुमान जी अयोध्या के ऊपर से उड़े तो भरत जी ने कोई विशालकाय राक्षस समझकर उनपर बाण चला दिया और वे राम-राम कहते हुए नीचे गिर पड़े। भरत जी बहुत पश्चाताप करते हैं। हनुमान जी को चेतना आती है तो एक दूसरे का परिचय करके हनुमान जी सारी व्यथा कथा भरत जी को बताते हैं और अति शीघ्र भरत जी से विदा लेकर लंका पहुंचते हैं।
घोर दुख और निराशा के सागर में डूबते हुए राम जी सहित सारी वानर सेना को नवजीवन मिलता है। बूटी के बदले हनुमान जी पूरा द्रोणगिरि पर्वत उठा लाए हैं। इस अलौकिक कार्य से सारा रामदल आश्चर्यचकित है।
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सुग्रीव जी जल्दबाजी में पर्वत से बूटी तोड़ने की चेष्टा करते हैं तो सुषेण वैद्य उन्हें रोकते हुए कहते हैं कि ये जीवनदायिनी औषधियां हैं इन्हें सम्मान के साथ ग्रहण करना चाहिए। हमें भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि पेड़-पौधे वनस्पतियां सब में जीवन होता है आत्मा होती है। हम जब भी फूल पत्ते फल आदि तोड़ें तो इस बात का ध्यान रखें कि उनमें भी हमारे जैसी ही चेतना और जीवन है
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सुषेण वैद्य द्वारा संजीवनी बूटी की पत्तियां तोड़कर लक्ष्मण जी को पिलाई गईं और वे उठ बैठे। इस प्रसंग से दो बातें प्रमाणित होती हैं – पहली ये कि यदि हम सत्य और धर्म के काम में लगे हैं तो विपदाएं, कठिनाइयां चाहे जितनी बड़ी आएं, उनका समाधान देर सवेर हो ही जाता है। और दूसरी ये कि आयुर्वेद में सिर्फ मृत्यु का उपचार नहीं है बाकी शरीर से जुड़ा कोई भी ऐसा रोग नहीं जिसका उपचार आयुर्वेद में ना हो।
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उपचार के बाद वैद्यराज की सलाह पर द्रोणागिरि पर्वत हनुमान जी दोबारा हिमालय पर स्थापित कर आते हैं ताकि प्रकृति के नियम और प्रकृति का सम्मान दोनों बने रहें।
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वीरघातिनी के प्रहार से भी लक्ष्मण के बचे जाने पर मेघनाद अपनी कुलदेवी निकुंभला के आशीर्वाद से अजेय दिव्य रथ पाने के लिए यज्ञ प्रारंभ करता है। विभीषण की सलाह पर लक्ष्मण जी यज्ञ विध्वंस करने वहां जाने को तैयार होते हैं । विभीषण जी के अलावा और किसी को मार्ग नहीं पता इसलिए उनका साथ जाना आवश्यक है। परंतु राम जी कहते हैं- विभीषण जी हम आपके प्राणों को संकट में नहीं डालना चाहते।
परंतु विभीषण जी कई तर्क देकर स्वयं को वहां जाने की अनुमति ले लेते हैं , इस पर राम जी लक्ष्मण से कहते हैं-लक्ष्मण हम इन्हें तुम्हारे भरोसे भेज रहे हैं। हमने इन्हें लंका नरेश बनाने का वचन दिया है, उस वचन को सत्य करने के हेतु इनकी सुरक्षा के लिए हम अपने प्राणों का भी मोह नहीं करेंगे। –विपत्ति में भी अपने वचनों और मर्यादा की रक्षा कोई राम जी से सीखे।
लक्ष्मण जी मेघनाथ के वध का संकल्प करके राम जी का आशीर्वाद लेकर निकल पड़ते हैं.
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सुग्रीव हनुमान अंगद आदि यज्ञ विध्वंस कर देते हैं और एक बार फिर लक्ष्मण मेघनाद का आमना सामना होता है। मेघनाथ, विभीषण को कुलद्रोही देशद्रोही संतान द्रोही कहता है तो विभीषण उसको जो उत्तर देते हैं वो हर इंसान को ध्यान में रखना चाहिए। विभीषण कहते हैं—‘अधर्मी अन्यायी क्रूर और अत्याचारी राजा का परित्याग करना देशद्रोह नहीं कहलाता। जो दूसरों का धन लूटता है, पराई स्त्री पर हाथ डालता है उस दुरात्मा को जलते हुए मकान की भांति त्याग देने योग्य बताया गया है।’
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सर पर काल सवार होने के कारण मेघनाथ कुछ नहीं सुनता और महायुद्ध प्रारंभ हो जाता। मेघनाद ने ब्रह्मास्त्र, पशुपति अस्त्र, नारायणास्त्र चलाया पर इन तीनों महा अस्त्रों को लक्ष्मण जी ने प्रणाम किया और तीनों अस्त्र बिना प्रभाव किए वापस चले गए।
‘धर्मो रक्षति रक्षित:’ धर्म की रक्षा करने वाले की रक्षा धर्म स्वयं करता है
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